Wednesday, August 8, 2007

१०-- मेरी रानी की कहानी

१०-- मेरी रानी की कहानी

यह घटना है सन्‌ १९८३ की। तब मेरी पोस्टिंग महाराष्ट्र के सांगली जिले में जिला परिषद् की प्रमुख कार्यकारी अधिकारी के पद पर हुई थी। महाराष्ट्र प्रशासन की दृष्टि से यह पोस्ट जिलाधिकारी के समकक्ष मानी जाती है, हालाँकि जिले में अलग से एक जिलाधिकारी भी होता है।

अंग्रेजों के काल में सांगली एक संस्थानिक राज्य हुआ करता था। अर्थात्‌ वहाँ एक राजा था और राजाओं के अपने शौक। अतः उन्होंने एक बड़ा सा चिड़ियाघर खोलकर उसमें कई पशु-पक्षी पाले थे। स्वतंत्रता के बाद राजपाट समाप्त हो गए और वह चिड़ियाघर भी सार्वजनिक हो गया। वहाँ सिंह और सिंहनियाँ भी थीं और जब उनके छोटे बच्चे पैदा होते, तो उन्हें सरकस के मालिकों के हाथ बेच दिया जाता था। इससे चिड़ियाघर को कुछ कमाई भी हो जाती थी।

क्या तुम जानते हो कि चिड़ियाघर का खर्च कैसे चलता है? शहर की नगरपालिका यह खर्चा चलाती है। प्रायः उनके पास पैसे कम होते हैं और चिड़ियाघरों की देखभाल ठीक से नहीं हो पाती। उधर सरकस के मालिक भी जानवर बच्चों को खरीदकर उन्हें तरह-तरह की कलाबाजियाँ सिखाने के लिए कई बार उनके साथ क्रूरता से पेश आते हैं। इसलिए सरकार बीच-बीच में नियम बनाती है कि छोटे जानवर बच्चे नहीं बेचे जाएँगे। कुछ समय बाद ये नियम फिर ढीले पड़ जाते हैं।

उन दिनों भी सरकार ने रोक लगाई थी कि सिंह, बाघ इत्यादि के छोटे बच्चे सरकस में नहीं बेचे जाएँगे। इधर सांगली नगरपालिका के पास पैसे नहीं थे कि जानवरों की ठीक से देखभाल हो। उसी समय चिड़ियाघर की एक सिंहनी ने तीन बच्चों का जन्म दिया। चिड़ियाघर के कर्मचारी खुश थे, लेकिन अधिकारी गण दुःखी हो गए। उन्हीं दिनों महाराष्ट्र के गवर्नर श्री लतीफ सांगली जिले के दौरे पर आए। शाम को उन्होंने सिंहनी के नए बच्चे देखने चाहे। बच्चों को टोकरियों में भरकर लागया गया। मैं और जिलाधिकारी गवर्नर का सारा इंतजाम देख रहे थे और अंदर उनसे बातें कर रहे थे। पर बाहर कुछ खुसर-पुसर हो रही थी। मै बाहर आयी। पूछा, तो नगरपालिका के कर्मचारी चिंता जता रहे थे कि आगे इन बच्चों के खर्चे की व्यवस्था कैसे होगी। झट मेरे दिमाग में कुछ बातें कौंध गयीं।

कुछ वर्ष पहले हम लोगों ने किस्से पढ़े थे कि धुले शहर के एक डॉक्टर पूर्णपात्रे अपने घर में सिंह और बाघ को पाला करते थे। उनकी एक सिंहनी सोनाली बड़ी मशहूर थी, जिसे बाद में उन्होंने पुणे के चिड़ियाघर में रखवा दिया था। मैं अपने परिवार के साथ, खासकर बच्चों के साथ उसे देखने कई बार जाया करती थी। जब डॉ. पूर्णपत्रे पुणे आते थे और सोनाली के
पिंजरे में जाकर उससे मिलते थे तो सोनाली भी उनके गले से लिपट कर तरह-तरह की आवाजें निकालती थीं। मानो उनसे हजार बातें कर रही हो। वह दृश्य देखनेवालों के दिल भर आते थे। हम लोगों ने भी यह दृश्य देखा था।

नगरपालिका की चिंता सुनकर मैंने सोचा, क्यों न मैं भी इन सिंह बच्चों को पाल लूँ ! नगरपालिका के खर्चे का बोझ कुछ कम हो जाएगा। किसी खास जानकारी की आवश्यकता हुई तो डॉ पूर्णपात्रे को चिट्ठी लिख दूँगी। नगरपालिका वालों ने 'हां' कर दी तो मैंने वन विभाग से अनुमति ली। फिर घर के लंबे-चौड़े बगीचे में एक बहुत बड़ा पिंजरा बनवाया। पिंजरे में सौ-सौ वर्ग फुट के दो खाने थे। बीच में इधर-से-उधर आने जाले के लिए दरवाजा था। दोनों पिंजरों से बाहर आने के लिए भी दरवाजे थे। ऊँचाई भी करीब १५ फट थी। वन विभाग की अनुमति और पिंजरे बनवाने में दो महीने बीत गए। फिर वह छोटी सिंहनी हमारे घर आयी, जिसे मैंने चुना था। हमने उसका नाम रखा 'रानी'। लेकिन अब रानी बड़ी होकर तीन माह की हो गई थी। उतनी अबोध नहीं थी, जितनी मैंने पहली बार देखी थी। मेरी अनुपस्थिति में उसे पिंजरे से बाहर नहीं रखा जा सकता था। पहले मैंने सोचा कि जब इसे पिंजरे में ही रखना पड़े तो फिर क्या चिड़ियाघर और क्या मेरा घर ! लेकिन चिड़ियाघर का उसका कमरा अँधेरा, सीलन-भरा और छोटा-सा था। हमने यही सोचकर उसे रख लिया कि यहाँ पिंजरा तो बड़ा है और खुला-खुला है।

पहले दिन उसने खूब ऊधम मचाया। वह पिंजरे की छड़ें पकड़ कर बंदर की तरह ऊपर तक चढ़ जाती और देखती कि वहाँ से कोई बाहर निकलने का रास्ता है या नहीं। फिर उसे खींचकर नीचे उतारना पड़ता था। इस बीच मैंने कई बार चिड़ियाघर जाकर उससे थोड़ी सी दोस्ती बनाई थी। वह थी बिल्ली के बच्चे की ही तरह, लेकिन वजन में बहुत भारी थी। धीरे-धीरे मेरी उसकी दोस्ती बढ़ने लगी। मैं सुबह-सुबह उसके पिंजरे के अंदर चली जाती। सफाई के लिए उसे दूसरे पिंजरे में भेज देती। उसे दूध देना, पानी देना और उससे बातें करना। यह हर सुबह का काम होता था। सप्ताह में दो बार उसे कच्चा मांस खिलाती थी। वह भी अपने हाथ में टुकड़े रखकर। वैसे मैं तो पूरी तरह शाकाहारी हूँ लेकिन रानी का खाना तो उसे मिलना ही चाहिए। शायद इसीलिए उसने मेरी दोस्ती स्वीकार की थी। जब में ऑफिस जाती तो उसे कहती- 'रानी, मैं ऑफिस जा रही हूँ'। फिर वह देर तक पिंजरे की उस दिशा में खड़ी रहती, जिधर से मेरी कार जाती थी। वापस आने पर मैं उसे
बताती- 'रानी, मैं वापस आ गई हूँ।' वह तुरन्त पिंजरे के पास आती और सिर सहलाने को कहती।

मेरे बच्चे और पड़ोस के कई बच्चे बाहर से ही उससे बातें करते। कभी मुझे दूरदराज के गाँवों में भी जाना पड़ता था। उन दो तीन दिनों के लिए रानी अकेली पड़ जाती थी। मैरे लौटने पर वह खूब उछल-कूद मचाती थी। एक बार मैं टूर से लौटी तो देखा, रानी के पैर की हड्डी टूट गई है। पता चला कि चिड़ियाघर का उसका जानने वाला कर्मचारी शिकलगार घर में आया था। उसने रानी को बाहर निकाला। कुछ उसके साथ खेला-कूदा भी। फिर क्या हुआ यह मैं ठीक से नहीं जान सकी, लेकिन वह कहीं से गिरी और हड्डी तोड़ बैठी। शहर के प्रख्यात अस्थि विशेषज्ञ डॉ. कुलकर्णी ने उसके पैर पर प्लास्टर लगाया। कुछ एक्स-रे भी किए, जो आज भी उनके संग्रह में यादगार बने हुए हैं। दस-बारह दिनों में रानी ठीक भी हो गयी।

यों तीन माह बीते। जो रानी पहले एक फुट लंबी थी, अब साढ़े चार फुट लंबी हो गयी थी। वजन में भी भारी। अब मैं उसे गोद में नही उठा सकती थी। फिर एक बार मुझे पंद्रह दिनों के लिए बाहर जाने की नौबत आयी। बच्चों के साथ रहने के लिए गाँव से मेरी माँ आ गई। घर में पैर रखने से पहले ही बोल पड़ी 'यह रानी यहाँ क्यों है?' मैंने तुम्हें कई चिट्ठियाँ लिखी थीं कि इसे वापस भेज देना। अब तो तुम्हें चुनना पड़ेगा, या तो मैं यहाँ रहूँगी या यह रानी ! मै बच्चों की देखभाल कर सकती हूँ, पर सिंह की नहीं।' इस प्रकार रानी फिर विदा हुई सांगली नगरपालिका के उसी छोटे-से कमरे में जहाँ से उसे निकालने के लिए मैं ले आई थी।

अगले एक वर्ष तक मैं सांगली में रही। तब मैं बीच-बीच में चिड़ियाघर जाकर उससे मिलती और बाहर से ही उससे बातें करती। चिड़ियाघर वाले मुझे अंदर जाने की अनुमति देकर रिस्क नहीं उठाना चाहते थे। फिर मेरा सांगली से तबादला हो गया। तब भी करीब एक वर्ष तक यदाकदा मैं सांगली गई तो देखा कि उसे मेरी याद थी और रानी पुकारने पर वह पास आ जाती थी। धीरे-धीरे वह भूल गई और मेरा वहाँ जाना भी समाप्त हो गया।

जीवन चलता रहता है। चिड़ियाघर में रानी दूसरी सिंह- सिंहनियों के बीच रही। पहली बार उसने तीन बच्चे जने ! बाद में और समय बीतता गया। शिकलगार अब बूढ़ा होकर रिटायर हो गया है। रानी के बच्चों के बच्चे भी आ गए हैं। एक दिन रानी मर गई तो सांगली चिड़ियाघर के अधिकारी ने खास तौर पर मुझे फोन करके यह दुःखद समाचार सुनाया। चिड़ियाघर के पुराने कर्मचारी पूछते हैं- 'आप कोई नया बच्चा रखेंगी? लेकिन कई अच्छे काम जीवन में एक बार ही हो पाते हैं,
बार-बार नहीं होते !

०९--हमारा दोस्त टोटो --7--वह दुखभरा दिन

टोटो का हम पर पूरा भरोसा था। उसे रैबीज या अन्य इंजेक्शन लगाने के लिये अस्पताल में ले जाने पर उसे कभी सांकल या पट्टा नही लगाना पड़ता। एक बार उसे विटामिन बी काम्पलेक्स के इंजेक्शनों का बड़ा कोर्स करना पड़ा। इस इंजेक्शन की मात्रा अधिक होती है और लेते समय दुखता भी बहुत है। उसे मैं या प्रकाश यह इंजेक्शन लगाते थे। उसे लेटे लेटे बाँई ओर से दाँई ओर मुड़ने के लिये 'पलट' शब्द सिखाया हुआ था। उसे 'पलट' पोजिशन में लेटने के लिये कहकर हम इंजेक्शन तैयार करते। फिर उससे कहते, टोटो, यह इंजेक्शन दुखेगा, लेकिन हिलना मत! फिर इंजेक्शन पूरा हो जाने तक वह बिल्कुल नहीं हिलता था। हालाँकि दर्द से उसका शरीर कँपकँपाता था और मुँह से कूँ-कूँ भी निकलता, लेकिन वह जरा भी हिले बिना इंजेक्शन ले लेता।

फिर अचानक मेरा तबादला मुंबई हो गया। मैं, आदित्य और टोटो मुंबई में रहने लगे। टोटो के दुर्दिन तभी से शुरू हुए। मुझे हाजी अली एरिया में सरकारी घर मिला था, जहाँ से हम लोग अक्सर समुंदर के किनारे और जब कभी समुंदर पीछे हट गया हो तो उसके अंदर भी चले जाते। वहाँ समुंदर से आधा किलोमीटर अंदर जाने पर प्रसिद्ध हाजी अली की मस्जिद और दरगाह है, जहाँ हिंदू और मुसलमान दोनों जाते हैं। हमलोग टहलते हुए वहाँ तक चले जाते थे। लेकिन मुंबई की उमस भरी हवा टोटो को रास नहीं आई। उसके कानों में पीब होने लगा और ऑपरेशन के लिए उसे आठ दिन वरली के अस्पताल में रखना पड़ा। जब मैं उसे लेने गई तो मेरे गले लिपट कर ख़ूब रोया जैसे कह रहा हो, 'क्यों मुझे यहाँ क्यों छोड़ा था'।

तभी प्रकाश को ऑफ़िस के काम से तीन महीने हॉलेंड जाना पड़ा। मुंबई की नौकरी में भी मुझे टूरिंग के लिए तीन चार दिन बाहर जाना पड़ता था। आदित्य को तो मेरी सासू जी के पास रखा जा सकता था, लेकिन टोटो को नहीं। थोड़े बहुत उपाय कर चुकने के बाद उसे पुणे में ही एक परिचित मित्रके फ़ार्म-हाउस में रखवा दिया। वहाँ उसकी बड़ी दुर्गत बनी। शायद वे उसे खाना नहीं देते थे। बाद में मुझसे कहा कि आप लोगों के बग़ैर वह खाने से इन्कार कर देता था। लेकिन मुझे कभी भी मुंबई में फ़ोन या पत्र लिखकर नहीं बताया। प्रकाश वापस आने पर सबसे पहले फ़ार्म हाउस जाकर उससे मिल आया। तब भी टोटो प्रकाश से लिपट कर बहुत रोया। लेकिन तब तक पुणे का मेरा सरकारी घर हम ख़ाली कर चुके थे और प्रकाश को सबसे पहले किराए का घर ढूँढ़ना था। प्रकाश को लगा कि घर आ जाने पर टोटो ठीक हो जाएगा। तभी मेरा तबादला भी फिर से पुणे में हो गया। हम लोगों ने मित्र को बताया कि आठ-दस दिनों में ही टोटो को घर ले जाएँगे।

लेकिन आठवें ही दिन जब उसे लाने पहुँचे तो वहाँ के नौकरों ने बड़ी बेदर्दी से बताया कि उसकी तबीयत बहुत खऱाब थी, इसलिए कल ही उसे जहर का इंजेक्शन देकर मार दिया है - वह देखिए, उधर उस गड्ढे में उसे गाड़ दिया है।

वह दुखभरा दिन और मित्र कहलाने वाले उस परिचित का यह दुर्व्यवहार हम कभी नहीं भूल सकते। बाद में भी हमारे घर में कई कुत्ते आए, लेकिन जो टोटो था वैसा और कोई नहीं था।

०९--हमारा दोस्त टोटो --6--घर का जिम्मेदार व्यक्ति

टोटो का, और सच पूछो तो सभी कुत्तों का एक बाल- हठ होता है कि उसे घर का जिम्मेदार व्यक्ति माना जाय, वही सम्मान दिया जाय। जब मेहमान घर में आएँ तो उनका परिचय करवाया जाय, उन्हें मेहमानों से भेंट करने (या चाटने !) दिया जाय। और जहाँ आप सब बैठकर बातें करेंगे वहाँ उन्हें भी बैठने दिया जाय।

लेकिन जरूरी नहीं कि हर मेहमान को कुत्ते पसंद हों। इसलिए हमने पहले प्लान बनाया कि मेहमान आयेंगे तो टोटो को बालकनी में भेजा जाएगा। फिर भी उसे न लगे कि उसे अकेले बाहर बंद कर दिया है इसलिए हमने दरवा.जे के साथ-साथ डेढ गज ऊँचा जाली का एक और दरवा.जा बनवाया ताकि टोटो का सिर दरवा.जे से ऊपर रहे और वह हमें देख सके। फिर भी जब मेहमानों के कारण उसे बालकनी में भेज कर हम छोटे दरवाजे की कुंडी लगा देते तो वह पहले कूं-कूं कर रोने लगता। फिर जैसे छोटे बच्चे धीरे-धीरे अपना रोने का सुर ऊँचा करते हैं, वैसे ही वह भी करता था। फिर यदि हमने मेहमानों को समझा बुझा कर उसे अंदर ले लिया तो प्रकाश के पैरों के पास बैठकर गंभीरता से हमारी बातें सुनता था। जब उन्हें रिक्शा तक छोड़ने के लिए हम जाते तो वह भी साथ जाता। ख़ास कर उनमें से जो बच्चे या औरतें हों तो उनके साथ रहता मानो वह समझ रहा हो कि किसका ज़्यादा ख़्याल रखना है।

आदित्य केवल तीन चार महीने का रहा होगा तब कि बात है। मैं उसे लेकर आठ-दस दिन के लिए दूसरे गाँव गई थी। लौटने पर पहले घर में मैं अकेली ही घुसी। टोटो ने पहले मेरे साथ काफ़ी उछल कूद कर ली। फिर हम पड़ोसी के घर में रखे आदित्य को उठा लाए। टोटो उसके साथ भी खेलने और उसे चाटने के लिए उतावला हो रहा था। प्रकाश ने कहा - देखो टोटो, मैं तुम्हें आदित्य के पास आने दूँगा लेकिन सँभल कर आना, वह छोटा बच्चा है और सो रहा है। प्रकाश ने आदित्य को अपनी बाँहों में उठा रखा था। टोटो हवा में थोड़ा सा लपका और बड़ी ही कोमलता से उसने आदित्य के मुँह को चूम लिया। वह दृश्य अब भी मेरी आँखों के सामने है।

जब आदित्य छह सात महीने का होकर घुटनों पर चलने लगा तब की बात है। दोपहर का समय था। मैंने टोटो के लिए ज्वार की रोटी का चूरा और दूध सान कर उसकी थाली बालकनी में रखी और उसे खाने के लिए कह कर अपने काम में लग गई। जरा सी देर में लगा कि टोटो के खाने की आवा.ज क्यों नहीं आ रही ! और आदित्य कहाँ है ! बालकनी में जाकर देखा तो आदित्य वहाँ पहुँच कर टोटो की थाली से रोटी के टुकड़े निकाल कर अपने मुँह में डाल रहा था और टोटो थाली छोड़कर दूर एक कोने में चुपचाप बेचारगी की मूर्ति बना खड़ा था, मानों कह रहा हो - देखो, मेरी कोई गलती नहीं है।

आदित्य जब तक खड़ा होकर चलने लगा, तब तक टोटो शानदार भरा - पूरा कुत्ता बन चुका था, आदित्य से कुछ ऊँचा ही था। फिर भी आदित्य उसे यों बरतता जैसे - वह कोई खिलौना हो। अदित्य ने उसका नाम भी बदल कर -भप्पी कर डाला। भप्पी स्पीक, भप्पी दौड़ जा, भप्पी पत्थर ढूँढ़ ला - - यहाँ तक ठीक था। लेकिन जब आदित्य कहता भप्पी हील, और टोटो उसकी बाँई ओर अटेंशन की मुद्रा में खड़ा हो जाता तो सबको हँसी आ जाती। लोगों ने इस जोडी का नाम रखा 'लिटिल मास्टर विथ बिग फ्रेंड'।

हमारे ही इलाके सदर्न कमांड का मुख्यालय था और उन दिनों आज की तरह उस रास्ते पर आने जाने के लिए कोई पाबंदियाँ नहीं थीं। भारत पाक युद्ध के दौरान कब्.जा किया गया एक पैटन टैंक मुख्यालय के सामने रखा हुआ था (उसे अब हटाकर संभाजी पार्क में रखा गया है।) रोज शाम प्रकाश, आदित्य और टोटो उधर घूमने जाते तो आदित्य और टोटो उस टैंक पर जा बैठते थे। फिर उस पर से नीचे कूदने का और दुबारा जम्प लगाकर ऊपर चढ़ने का सिलसिला शुरु हो जाता। इसमें आदित्य के जम्पस्‌ केवल छुन्नू-मुन्नू होते थे और प्रकाश ने उसे कंधे से पकड़ा होता था। लेंकिन टोटो पूरी सक्रियता से जम्प लगाता।

यहीं से कुछ आगे जाने पर सदर्न कमांड के अन्य अफसरों के घर थे, जिनमें पांच-छह फुट ऊंची कम्पाउंड वॉल्स लगी हैं। वहाँ भी टोटो छलांग लगाकर चढ़ जाता। हर दिन उसके नियमित व्यायाम के लिए ऐसी पांच-छह छलांग उससे लगवाते थे। टहलने के लिये निकले बाकी लोगों के लिए यह एक कौतुक का विषय था।

कई बार कम्पाउंड वॉल्स उतनी चौड़ी नही होती कि छलांग लगाकर उस पर बैठा जा सके। इसके लिये टोटो को दो शब्द सिखाये थे। 'अप' या जम्प का अर्थ था कि उपर चौड़ी जगह है, चढ़ कर बैठ जाओ। लेकिंन 'उफ-फू' का अर्थ था कि ऊपर बैठने लायक जगह नहीं है, सो वहाँ जरा से पैर टिकाकर दूसरी तरफ जमीन पर कूद जाना है। इसमें भी टोटो प्रवीण हो गया था। लेकिंन यह सिखाने के लिये प्रकाश को खुद उसे एसी छलांग लगाकर दिखाना पड़ा था जिनकी कम्पाउंड वॉल ऐसे ट्रेनिंग के लिये काम आई, उन अफसरों के साथ प्रकाश की दोस्ती हो गई।

०९--हमारा दोस्त टोटो --5--तुझे मुंबई नहीं लें जा सकते

मेरी टूर में कभी कभी प्रकाश भी शामिल हो तो टोटों बड़ा ख़ुश होता। फिर वे दोनों पहाड़ों और कि़लों पर घूमने चले जाते। मेरी सब डिवी.जन में चारों तरफ़ शिवाजी-कालीन गढ़ और कि़ले थे जैसे सिंहगड़, राजगड़, लोहगड़ इत्यादि। टोटो इन सभी गड़ों पर चक्कर लगा चुका था।

नाइट हॉल्ट ना हो, तब मैं गाँवों के इंस्पेक्शन पूरे करके घर लौट आती। इसका कोई समय निर्धारित नहीं होता। कभी शाम के छ बजे तो कभी रात के दो-तीन बजे भी मैं घर आती। उन दिनों घर में संदेशा भेजने की कोई व्यवस्था नहीं थी कि मैं कितनी देर से लौटूँगी। लेकिन मेरे लौटने के क़रीब आधा घंटा पहले टोटो दरवा.जे के पास चला आता था और तब तक वहीं रुकता जब तक मैं न आ जाँऊ। वैसे कुत्तों के कान और सूँघने की क्षमता अद्भुत होती है, फिर भी इतनी दूर से मेरे आने का पता लगना केवल इन्हीं दो बातों से नहीं हो सकता।

इससे भी आश्चर्य की दो घटनाएँ हमें याद आती हैं। एक बार प्रकाश के छोटे भाई को इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखि़ला दिलवाने प्रकाश को सांगली जाना पड़ा, जो पुणे से क़रीब २०० किलोमीटर दूर है। इस काम में चार-पाँच दिन लगने थे। लेकिन दूसरी ही रात की बात है - टोटो मेरे पलंग के नीचे से उठकर दरवा.जे के पास जा बैठा। मैं भी बड़ी सावधानी से दरवा.जे तक गई। तो जनाब ख़ुश होकर पूँछ हिला रहे थे और हौले-हौले कूं-कूं भी कर रहे थे। मैं थोड़ी देर रुकी, फिर डाँटकर उसे सो जाने को कहा और वापस आ गई। लेकिन टोटो वहीं बैठा रहा। बीस-पचास मिनट बाद 'बेल' बजी और सामने प्रकाश हा.जिर। पता चला कि काम जल्दी हो गया था। स्टेशन से घर आने में क़रीब उतना ही समय लग जाता है।

इसी दौरान मुझे ट्रेनिंग के लिए मसूरी जाना पड़ा। आदित्य को मुंबई में दादी के पास रखकर मैं मसूरी चली गई। अब घर में प्रकाश और टोटो अकेले थे और प्रकाश के ऑफ़िस जाने पर टोटो निपट अकेला रह जाता। घर में अख़बार, कई तरह के बिल, चिट्ठियाँ आदि आते थे जिन्हें लोग दरवा.जे के अंदर से नीचे सरका देते थे। एक दिन ऑफ़िस से लौटकर प्रकाश ने देखा कि टोटो ने किसी काग़.ज को चबा चबाकर छोटा सा बॉल बना दिया था और उसी पर अपना मुँह रखकर बैठा था। बड़ी मुश्किल से प्रकाश ने उसे छीना, फिर बाल्टी भर पानी में उसे धोया तो काग़.ज की चिंदियाँ पानी पर तैरने लगीं। उन्हें सीधा किया, सुखाया और बड़ी कोशिश की समझने की कि ये कौन सा कागज हो सकता है? कुछेक ही अक्षर पढ़ने को मिले जिनसे पता चला कि वह मेरी चिट्ठी थी।

पंद्रह-बीस दिनों में मेरी दूसरी दो चिट्ठियों की यही गत बनी तो हारकर प्रकाश ने लैटर बॉक्स बनाया। अन्य किसी भी काग़.ज की ओर ध्यान न देने वाला टोटो केवल मेरी चिट्ठियों की महक से पहचान कर उन्हें चबाया करता था।

एक बार मेरी सासूजी पूना आईं - आठ दिन रहीं। टोटो एकदम उनका भक्त बन गया। जाने के दिन सुबह वे काफ़ी देर टोटो के पास बैठकर बातें करती रहीं कि अब मैं मुंबई वापस जाऊँगी। तुम ठीक से रहना। आदित्य का, घर का ख़्याल रखना इत्यादि। इस पर टोटो बेचारा क्या कहता, किस भाषा में कहता जो हम समझ पाते ! जाने से एक घंटा पहले उन्होंने अपना सामान पैक किया और बाहर के कमरे में लाकर रख दिया। टोटो उठा, उसे सोने के लिए जो टाट का बिस्तर बना हुआ था -अर्थात उसका सामान - वही घसीट कर ले आया और उनके सामान से भिड़ा कर रख दिया। उसे बहुत समझाना पड़ा कि बेटे, तुझे मुंबई नहीं लें जा सकते।

०९--हमारा दोस्त टोटो --4--'नो' वाला हुक्म

'नो' वाला हुक्म
'किचन नो' का मतलब था कि टोटो, तुम्हें किचन में आना मना है। पूरे घर में मुक्त रूप से घूमने वाले टोटो के लिए यह आदेश बड़ा दुखदायी रहा होगा लेकिन उसने कभी उल्लंघन नहीं किया। पुणे के घर में किचन एक तरफ था लेकिन बाद में मुंबई के घर में किचन बीचोबीच था और किचन नो का मतलब था कि टोटो को दूर का चक्कर लगाकर
इधर से उधर जाना पड़ता। फिर भी उसने कभी किचन में प्रवेश नहीं किया। हफ़्ते में एक दिन उसके लिए मांस पकाया जाता। वैसे मैं पूरी तरह शाकाहारी हूँ और हमारे घर में आमलेट के सिवा अन्य मांसाहारी खाना नहीं के बराबर है। लेकिन टोटो के लिए मांस .जरूर पकाया जाता था। उसकी महक घर में फैलती तो टोटो का धीरज जवाब दे जाता। वह किचन के आसपास ही घूमता ओर कभी एकाघ पैर या गर्दन अंदर ले जाता। फिर हम लोग यों जताते मानों आपस में बात कर रहे हों - 'पता है एक आदमी रसोईघर में आने की कोशिश कर रहा है।' यह सुनकर बेचारा टोटो वहाँ से हटकर बालकनी में चला जाता।

उसे यह भी सिखाया था कि किसी दूसरे आदमी के हाथ से खाना तभी लेना है यदि प्रकाश या मैं या आदित्य इसकी इजा.जत दें। और 'खाना नो' कहा हो, तो सामने पड़ा खाना भी नहीं खाना है, भले ही वह मांस, मछली या चिकन ही क्यों न हो। कभी कभी दो-दो घंटे तक भी खाना न खाकर टोटो ने दिखा दिया था कि वह परीक्षा में अच्छी तरह पास था। लेकिन वह बुद्धिमान भी था - जल्दी ही जान गया था कि 'खाना नो' सुनने के बाद थाली के पास बैठे रहने की बजाय यदि वह हमारे आगे-पीछे घूमता रहे तो हम उसे बड़ी जल्दी खाने की इजा.जत दे देते हैं।
एक और 'नो' वाला हुक्म था जो उसे खलता था। मैं और प्रकाश दोनों नौकरी पर जाते। इसलिए हमारे आने पर उसकी इच्छा होती थी कि हमारे ऊपर उछल कूद करे, खेले, चाटे इत्यादि । हम उसे कहते - 'ऑफ़िस के कपड़े - नो'। फिर वह रुककर इंत.जार करता कि कब हम कपड़े बदलकर बाहर आएं और उसके साथ खेलें। कभी-कभी ऐसा भी होता कि ऑफ़िस से आओ, और ते.जी से कपड़े बदल कर किसी पार्टी के लिए तैयार हो जाओ। ऐसे समय दुबारा 'ऑफ़िस के कपड़े, नो' सुनकर वह बहुत मायूस हो जाता।

मेरी डयूटी काफ़ी टूरिंग वाली थी और अपने सब-डिवी.जन के गाँवों में 'नाईट हॉल्ट' करना आवश्यक होता था। टूरिंग के लिए एक जीप मिली हुई थी। आदित्य भी छोटा था। सो नाइट-हॉल्ट के लिए जाना हो तो जीप में मेरे साथ आदित्य, उसकी बुढ़िया आया, टोटो, टोटो के खाना खाने की थाली और सोने के लिए का टाट का बिछौना, ऑफ़िस का अर्दली इत्यादि पूरा दल-बल जाता था। टूर वाले गाँव में पहुँच कर मैं तो अपने काम में लग जाती पर टोटो इधर उधर घूम आता।

आज भी मेरे सब-डिवी.जन के रिटायर्ड पटवारी और रेस्ट हाउस के कर्मचारी आदित्य का हालचाल पूछते हैं और टोटो को याद कर लेते हैं।

०९--हमारा दोस्त टोटो --3-- प्रसिद्व था टोटो

उसे आदित्य के छोटा बच्चा होने का भान था । यदि उससे कहो कि आदित्य के लिये 'स्पीक' करो तो वह आदित्य के पास जाकर बहुत धीमी आवाज में भौंकता था । वैसे भी उसे आदित्य के आसपास रहना अच्छा लगता । यदि हमने आदित्य को पलंग पर सुलाया तो टोटो उसी पलंग के नीचे घुस जाता । आदित्य अकसर लुढ़ककर पलंग से गिर जाया करता था, जिस कारण हमने उसे जमीन पर सुलाना शुरू किया था। तब टोटो भी वहीं पास जाकर बैठ जाता । हम उसे याद दिलाते कि आदित्य के बिस्तर पर नहीं जाना है । लेकिन वह हमारी न.जर छिपाकर अपना अगला पंजा या थूथनी रख ही देता । फिर यदि डाँट पड़ी तो पीछे हट जाता, लेकिन पूंछ रख देता था।

घर में कोई मेहमान आये और गप्पों में उसे शामिल न किया जाये तो उसे बुरा लगता था । मेहमान आते ही वह सबसे पहले उस कुर्सी के नीचे चला जाता जो प्रकाश की फेवरिट कुर्सी थी । कभी मेहमान डर जाते तो उसे बालकनी में भेजना पड़ता । वहाँ से वह कूं-कूं कर अपनी गुहार लगाता कि मैं भी आऊंगा । कभी-कभी हम मेहमानों को समझा-बुझाकर उसे बुला लेते । कभी नहीं बुलाते तो वह रूठ जाता। फिर उसे मनाने के लिये प्रकाश को एकाध घंटा उससे बातें करनी पड़ती थीं ।

कुत्तों को घुमाते समय उनके गले में पट्टा लगाना पड़ता है या साँकल लगानी पड़ती है लेकिन टोटो इतना सीख गया था कि प्रकाश के साथ पूरी तरह खुला ही घूमता था। उसे 'जा' कहने से वह हमसे हटकर थोड़ा-बहुत इधर उधर भटक लेता था, लेकिन 'हील' कहने का मतलब था कि उसे प्रकाश की बाँई बा.जू में आकर प्रकाश के कदम से कदम मिलाकर एकदम मिलिट्री चाल में चलना है। कभी वह इधर उधर चला जाय और कहो कि 'टोटो, रास्ते पर कैसे चलते हैं', तो झट वह वापस आकर 'हील' पो.जीशन में चलने लगता। क्वीन्स गार्डन में कई मिलिट्री और पुलिस के अधिकारी रहते थे और टोटो का अनुशासन देखकर अचंभा करते थे और प्रकाश से दोस्ती करते थे। आसपास के बच्चे प्रकाश को या मुझे 'टोटो के बाबा', या 'टोटो की माँ' के नाम से ही जानते थे। हमारे घर दूर शहरों से आने वाले कई रिश्तेदारों को केवल इस पहचान पर हमारे घर पहुँचाया जाता कि 'अच्छा, वहीं , जिनके घर में टोटो है'! वहाँ नए आए पुलिस कमिश्नर श्री मोडक से मिलने हम गये तो उन्होंने प्रकाश को देखकर पूछा - आपको तो मैं पहचानता हूँ। आप वही हैं ना जिनका एक बड़ा अनुशासित कुत्ता है?'

प्रकाश को सुबह सात बजे ऑफ़िस के लिए निकलना पड़ता। घर से दो किलोमीटर दूर ऑफ़िस की पिक-अप बस आया करती थी। सो सुबह सुबह मैं, प्रकाश और टोटो स्कूटर से वहाँ तक जाते और प्रकाश को वहाँ छोड़कर मैं स्कूटर से वापस आ जाती। टोटो भी स्कूटर के साथ तीस-चालीस किलोमीटर की स्पीड से दौड़ते हुए आता-जाता। उसकी स्पीड के लिए भी वह काफ़ी प्रसिद्व था।

०९--हमारा दोस्त टोटो--2--टोटो की ट्रेनिंग

अल्सेशियन कुत्ते की जात ही बड़ी बुद्धिमान्‌ और स्वामिनिष्ठ होती है । उधर प्रकाश का भी जानवरों से दोस्ती करने का एक अपना ही अंदाज है । इसलिये प्रकाश की सिखाई हुई बातें टोटो बड़ी तेजी से सीख लेता था । पुणे पुलिस कमिशनर के डॉग-स्कवॉड में उन दिनों मिस्टर दायमा ए.सी.पी. थे जो कुत्तों के ट्रेनिंग में बडे माहिर थे । टोटो को लाने से पहले हम दोनों ने बाकायदा उनके साथ दो-तीन घंटे विस्तार से चर्चा कर यह समझा था कि प्रशिक्षण में किन बातों का ध्यान रखते हैं । मिस्टर दायमा ने हमें एक पुस्तक दिखाई और सिफारिश की कि आप इसे अवश्य खरीदें । इस पुस्तक के विषय में कुछ न कहना बड़ा ही गलत होगा ।

पुस्तक का नाम था 'ट्रेन युवर ओन डॉग' ! शुरू से आखिर तक कार्टूनों से भरी यह किताब इतनी मजेदार है कि जिसे कुत्ता न भी पालना हो, वह भी इसे मजे से पढ़ सकता है । लेखक थे राजा बजरंग बहादुर सिंग ऑफ भद्री, श्री सिंग अपने आप में एक खास शख्सियत रखते थे और देशभर में चोटी के कुत्ता शौकिनों में उनका नाम था । सन्‌ १९६१ में वे हिमाचल प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे और प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के खास दोस्त थे । उनकी गवर्नरी के दौरान हिमाचल प्रदेश में डॉग स्क्वाड तैयार करने की योजना बनी ।

लेकिन कुत्तों को ट्रेनिंग कौन देगा और कैसे ? किसी पुलिस वाले को यह नहीं आता था । इसलिये भविष्य के ट्रेनर पुलिसों के मार्गदर्शन के लिये सिंग साहब ने यह पुस्तक लिखी । पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है बंगाल के राज्यपाल ने, जो स्वयं कुत्तों के शौकीन थे । इस पुस्तक के चलते हिमाचल पुलिस का मनोबल बढ़ा और देश का पहला डॉग स्क्वाड हिमाचल पुलिस ने तैयार कर दिखाया। पुस्तक का प्रकाशन और सारे अधिकार हिमाचल के इन्सपेक्टर जनरल ऑफ पुलिस के पास सुरक्षित हैं। पुस्तक बिक्री से होने वाला सारा मुनाफा पुलिस वेल्फेयर फंड में जमा होता है । प्रकाशक की भूमिका में आगे लिखा है कि इस पुस्तक में वर्णित ट्रेनिंग का हरेक गुर श्री सिंग ने खुद आजमाया था। हर गर्मी वे पंडितजी के प्रिय कुत्ते मोती को ट्रेनिंग के लिये शिमला ले आते थे। पंडित जी की अनुमति से हिमाचल पुलिस के सामने मोती ने वे सारे कारनामे कर दिखाये। तब जाकर कहीं हिमाचल के डॉग स्क्वाड की योजना बनी । आज भी यदि यह पुस्तक कोई खरीदना चाहे तो उसे शिमला के पुलिस हेड क्वाट्रर से मनीऑर्डर भेजकर इसे मँगवाना पड़ता है । खैर !

यों टोटो की ट्रेनिंग कुछ पुस्तक से पढ़कर, और कछ खुद आजमाकर शुरू हुई । सबसे पहले उसने सीखा कि उसका नाम टोटो है और आदित्य का नाम आदित्य । घर में गंदा नहीं करना है, जब तक उसे घुमाने नहीं ले जाते तब तक शू-शू या शी-शी नहीं करना है, इन बातों का ध्यान वो रखता। हमारा घर तीसरी मंजिल पर था। टोटो छोटा था, तब उसे कई बार शी-शू करने होती थी । तब वह एक बारीक मिमियाती आवा.ज निकालता था कि प्लीज, अब मुझे नीचे ले चलो । नीचे ले जाने पर वह दौड़ लगा सकता था या उछल-कूद कर सकता था । पहले तो उसने यही चालाकी करनी चाही कि वही खास आवाज निकालो तो ये लोग मुझे घुमाने ले ही जायेंगे । लेकिन थोड़ा सा डाँटने और समझाने के बाद वह समझ गया कि इस तरह का झूठ नहीं बोलना चाहिए। फिर उसे सिखाया गया कि सोफा फाड़ना नहीं है और जूते, चप्पल या मोजे भी नही चबाना है । लेकिन यह सीखने से पहले वह एक सोफा कवर और चार-पांच जूते-चप्पल फाड़ चुका था।
कुत्तों को सिखाने के लिए डॉग बिस्किट अच्छे होते हैं। दूसरा उपाय है उन्हें प्यार से सहलाना और हल्का मसाज करना। टोटो की अगली ट्रेनिंग थी सीटी बजाकर बुलाने की । सीटी पर एक खास तरह की धुन मैंने और प्रकाश ने तय की थी । उसे सुनकर टोटो जहां कहीं हो, दौड़ा चला आता था । फिर हवा में छलांग लगाकर बिस्किट लेना या ऊपर फेंका हुआ बिस्किट हवा में ही लपक लेना, लेकिन खाने की इजाजत मिले बगैर न खाना, फेंका हुआ बॉल, लकड़ी या पत्थर ढूंढकर लाना इत्यादि बातें उसे सिखाई गईं।
कोई आता और बेल बजाता तो टोटो भौंकने लगता, लेकिन हमारे चुप कहने पर रुक जाता । फिर हमने उसे शब्द सिखाया - स्पीक ! तब उसने 'स्पीक' कहने पर भौंकना सीखा ।
एक बार पुणे में एक दहशत का माहौल छा गया । चार-पाँच जनों की टोली ने लगातार खून किये थे - कभी इक्के दुक्के को, तो कभी पूरे परिवार को मार डाला था। बाद में यह कांड 'जोशी-अभ्यंकर मर्डर केस' या 'जक्कल खूनी कांड' के नाम से जाना गया । उन दिनों हर आठ-दस दिन बाद कोई भयानक खून हो रहा था । पुलिस को सुराग नहीं मिल रहा था । अफवाहें जोरों पर थीं । शाम सात बजे के बाद पुणे की सड़कें वीरान होने लगीं । छोटे चोर उचक्कों की बन आई । हर बस्ती में छोटी-छोटी चोरियाँ होने लगीं । क्वीन्स गार्डन के सरकारी क्वार्टर्स में भी हुई। लेकिन टोटो की दहशत ऐसी थी कि हमारी बिल्डिंग में चोरी नहीं हुई । कभी अजनबी लोग दिखे तो टोटो ने उन्हें खदेड़ दिया । हमारे पड़ोस में चौधरी और दारजी परिवार थे । कोई अजनबी दिखे तो वे लोग भी कहते - 'टोटो देखना जरा' ! फिर टोटो यों भौंकता और उनके पीछे लगता कि वे भाग जाते। बाद में जक्कल तथा उसके साथी पकड़े गए, उन्हें फाँसी भी हुई।

इस घटना के कारण हम लोगों ने सोचा कि जब हम 'स्पीक' कहेंगे तो टोटो के अलावा और लोग भी तो समझेंगे। नहीं, उसे इशारों की भाषा सिखाना चाहिए । सो मुट्ठी को खोलने-बंद करने का इशारा करते और टोटो भौंकना शुरू कर देता। जब काफी लोग जमा हों, बातें ही चल रही हों, तो टोटो को दिखाकर प्रकाश धीरे से मुठ्ठी को खोलने - बंद करने का इशारा करते और टोटो भौंकना शुरू कर देता। इन ट्रेनिंग के लिए भी टोटो की खूब वाहवाही हुई।

दायमा ने हमें बताया था कि कुत्तों को सिखाने के लिये छोटे-छोटे दो तीन अक्षर वाले शब्द चुनने चाहियें और उनमें उच्चारण समता नहीं होनी चाहिए । सो हमने मराठी, हिंदी और अंगरेजी से अलग-अलग शब्द चुने । 'टोटो, पसर', कहने से वह चारो पैर फैलाकर सिर को जमीन पर रखकर पसर जाता, लेकिन 'बस' कहने पर केवल पिछले पैंरों पर सावधान होकर बैठ जाता - मानों कह रहा हो कि अब मैं किसी भी काम के लिये तत्पर हूँ ।

०९--हमारा दोस्त टोटो --1

०९--हमारा दोस्त टोटो

जीवन में जितना महत्व हमारे नातेदारों का, परिचितों एवं मित्रों का होता है, कुछ ऐसा ही महत्व पास-पड़ोस के फूल, पत्त्िायों, वृक्ष, लताओं, पशु-पक्षियों का होता है। पहाड़ों, नदियों, यहाँ तक कि शहरों के भूगोल का भी होता है। मराठी संत तुकाराम के शब्दों में, वृक्षवल्ली, वनचर भी हमारे नातेदार होते हैं, वही हमें ब्रह्माण्ड से नाता जोड़ने तक ले जाते है।

नाते की कड़ियाँ कहाँ शुरू होती हैं और कहाँ-कहाँ तक जा सकती हैं, कहना मुश्किल है। जो पहली ठोस कड़ी मेरे मन में बसी है, वह है हमारे दोस्त टोटो की।

मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में आई, उसी दौरान मेरी शादी भी हुई । इसलिये दो महीने अपने पति प्रकाश के साथ कोलकाता में गुजारने के बाद मुझे ट्रेनिंग के लिये एक वर्ष मसूरी आना पड़ा । इसके बाद मेरी पोस्टिंग हुई पुणे में और भविष्य में भी महाराष्ट्र में ही रहने की संभावना थी इसलिये प्रकाश ने भी अपना तबादला पुणे में करवा लिया। मेरी पोस्टिंग थी एस्‌.डी.एम्‌ हवेली।

मुझे क्वीन्स गार्डन में सरकारी घर मिला हुआ था। जैसे कि सारे सरकारी घर होते हैं, उसी तरह यह भी काफी बड़ा था। रहने वाले हम दो ही जने । मेरी डयूटी का कोई समय तय नहीं था । कभी बिल्कुल सुबह तो कभी आधी रात के बाद तक। और टूरिंग तो महीने में बीस दिन । इसके ठीक उल्टे प्रकाश की डयूटी इतनी नियमित थी कि कोई उनके आने-जाने को देखकर ही अपनी घड़ी मिला ले । शाम का पूरा वक्त अपनी मन मर्जी का ! बड़ा घर होने के कारण प्रकाश के बचपन का शौक उभर आया - कुत्ता पालने का । हमने बड़ी खोजबीन करने के बाद एक अल्सेशियन पिल्ला ले लिया । उसका नाम रखा -टोटो। किसी अफ्रीकी भाषा में इसका अर्थ होता है, छोटा बच्चा । टोटो के आने के कुछ ही दिनों बाद हमारे पहले बेटे आदित्य का भी जन्म हुआ। दोनों के बीच एक अजीब दोस्ती कायम हो गई ।

२०-- सुवर्ण पंछी

२०-- सुवर्ण पंछी

क्या तुम्हारे क्लास में वह कहानी पढाई जाती है कि एक आदमी के हाथ सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी आ गई। वह रोज एक अंडा देती थी। लेकिन एक दिन उस आदमी ने सोचा कि मुर्गी का पेट काटकर मैं सारे अंडे एक साथ ले लूँ- रोज-रोज राह क्यों देखूँ ! बस, उसने मुर्गी को मार दिया, पेट में कोई अंडे नहीं मिले, मुर्गी मर गई और आदमी को अपने लालच का फल मिल गया।

जब हमारे स्कूल में यह कहानी पढाई गई तो मास्टरजी ने पूछा- इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है? हम सबने कहा- लालच बुरी बला है। लेकिन एक लड़के ने कहा- हमें पक्षी को नहीं मारना चाहिए। तब तो हम लोग उस लड़के को बुद्धू समझ कर हँसे, लेकिन अब मैं समझती हूँ कि उसने ठीक ही कहा था। तब मैंने यह भी सोचा कि किसी पक्षी के पेट में भला सोना कैसे आ सकता है! पक्षी का सोने से क्या रिश्ता !

लेकिन उन्हीं दिनों में मुझे किसी ने एक छोटे-से प्राणी साँपसोई का परिचय कराया- कि इसे देखने से पैसे मिलते हैं। देहातों में इसे 'बामन बिच्छी' भी कहते हैं, क्योंकि यह न काटते हैं, न कोई अन्य उपद्रव करते हैं। पैसे मिलने की बात थी। फिर तो क्यों, कैसे ये सब प्रश्न पीछे रह गए, और हम लोगों का रोजाना यही काम हो गया कि सॉपसोई पर नजर रखें। उनके छिपने और रहने की जगह कहाँ हैं ; कब वह बाहर निकलते हैं और जब वह तेज गति से इधर से उधर भागते हैं तो कैसे उनके भूरे शरीर की छोटी सुनहरी धारी धूप में चमकती है। हमारे स्कूल में उनके रहने की कई जगहें थीं और हर छोटी-बड़ी छुट्टी में हम वहाँ चले जाते थे। जिस दिन सॉपसोई दिख गई, उस दिन स्कूल से घर जाते हुए रास्ते पर देखते जाते कि कहीं कोई पैसा पड़ा हुआ मिल जाए। अक्सर तो कोई पैसा नहीं मिलता था। लेकिन हमारा खेल जारी रहता था।

इन्हीं वर्षों में माँ ने मेरा परिचय कराया छुछूंदर से जो चूहे की तरह ही होती है। इसके शरीर पर एक खास चमक होती है। माना जाता है कि छुछूंदर भी लक्ष्मी का वाहन है- यदि यह घर के अंदर आ जाए- जो वह कभी नहीं आती, तो समझो लक्ष्मी भी आ जाएगी। वैसे तो बंगालियों में उल्लू को भी लक्ष्मी का वाहन माना जाता है लेकिन उल्लू देखने से पैसे
मिलने की कोई किंवदंती मैंने नहीं सुनी है।

फिर किसी ने बताया कि भारद्वाज पक्षी को देखने से पैसा या कोई बड़ा शुभ फल मिलता है। भारद्वाज पक्षी बड़ा शर्मीला होता है। आकार में कोयल से भी बड़ा यह पक्षी अक्सर पेड़ों में छिपकर रहता है और अपनी घन-गंभीर आवाज में 'कुक्‌-कुक्‌''कुक्‌-कुक्‌' की पुकार लगाता रहता है, जैसे खेतों में पानी के पंप की आवाज आती है।

भारद्वाज बड़ा सुंदर पक्षी है। मोटा-थुलथुल, चमकीले काले रंग का इस पक्षी की पीठ सुनहरे तथा कॉफी के रंग में होती है। यह ज्यादा दूर उड़ना पसन्द नहीं करता। खुले आँगन में चहलकदमी करते हुए कीड़े, अनाज इत्यादि चुनता रहता है। लेकिन इसकी चाल और उड़ान दोनों ही बड़े शानदार होते हैं, जैसे कोई राजपुरूष हो।

चूँकि यह अधिकतर पेड़ के अंदर छिपकर रहता है, इसलिए इसे देखना बड़ा कठिन है। बिलकुल ताक लगाकर, इंतजार करके, इसके चारा चुगने के समय और इसकी प्रिय जगहों पर निगाह रखी जाए, तभी इसे देख सकते हैं।

इसीलिए मुझे कभी भारद्वाज का 'कुक्‌-कुक्‌' वाला लय से भरा खर्ज स्वर सुनाई पड़े तो मैं बीस-तीस मिनट तो उसकी खोज में अवश्य गुजारती हूँ। लेकिन यदि वह दीख जाए तो बाद में मैं याद रखना भूल जाती हूँ कि कोई शुभ घटना वास्तव में हुई या नहीं।
ऐसा ही शुभ शकुनवाला दूसरा पक्षी माना जाता है- धनेश या धन चिरैया। यह भी एक विशाल पक्षी होता है, जिसकी चोंच बिलकुल सोने के रंग वाली होती है। इसे अंक्रेजी में 'हार्न बिल' कहते हैं। प्रसिद्ध पक्षी-विशारद सलीम अली को यह इतना प्रिय था कि अपनी बॉम्बे नैचरल हिस्ट्री सोसाइटी का बोध चिन्ह भी उन्होंने धनेश ही रखा है।

अब जिस पक्षी का नाम ही धनेश हो उसे तुम समझ सकते हो। धनेश अर्थात्‌ धन का ईश्र्वर। इसलिए माना जाता है कि धनेश को देखने से पैसा मिलता है। करीब-करीब चील के आकारवाला यह पंछी भी बड़ा संकोची होता है और छिपकर ही रहता है। इसीलिए यदि कोई सोचे कि इसे देखने पर सोना या पैसा मिलता है तो क्या आश्चर्य !

मैं जब सांगली में कलेक्टर थी, तब मेरे आँगन में एक विशाल रूप से फैला हुआ शिरीष्ज्ञ का पेड़ था। उसके अंदर कहीं पर धनेश के एक पूरे कुटुंब ने अपना डेरा बनाया हुआ था। बड़े तड़के ही वे सारे उठकर कहीं दूर चले जाते थे और शाम को वापस आते थे। उन्हें देखने के लिए हम लोग कभी-कभी सुबह का अलार्म लगाकर उनसे पहले उठ जाते थे और फिर प्रतीक्षा करते कि कब वे उड़ेगे और हम उन्हें देख सकेंगे। फिर वह पूरा दिन इतनी प्रसन्नता से बीतता था कि वही किसी सोने की तोल के बराबर हो जाता।

तुम्हें यदि एक विशालकाय धलेश देखना हो तो भुवनेश्र्वर के 'नंदन-कानन' चिड़ियाघर में जाना। वहाँ बच्चों के लिए एक छोटी रेलगाड़ी चलती है। रेलगाड़ी के प्लेटफार्म पर टिकट चेकर कि जगह लकड़ी का बनाया हुआ एक विशालकाय धनेश पक्षी रखा हुआ है। जिस किसी ने उसे बनवाकर वहाँ रखने की बात सोची है, उसे तो मैं सौ के सौ नंबर दूँगी। तुम भी दोगे न?
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१९-- एक असहाय मगर की मृत्युगाथा

१९-- एक असहाय मगर की मृत्युगाथा

सन १९९४ के मार्च महीने में पुरी-भुवनेश्र्वर के आसपास घटित हुई थी यह सत्यकथा जो मैंने अपनी भाभी श्रीमती अग्निहोत्री से सुनी। उड़ीसा गरीबी, बदहाली, और भूखमरी से बेहार राज्य माना जाता है। शिक्षा का प्रमाण बिहार या उत्तर प्रदेश से अच्छा है, लेकिन बेरोजगारी भीषण है। एक भरे पेट वाला इन्सान जितने प्यार या सद्भावना से पशुओं - प्राणियों की बात करता है (या हम सोचते हैं कि समझता है), शायद उस तरह की संवेदनशीलता एक खाली पेट वाला इंसान नहीं रख सकता। यहां एक ही बात का महत्व है कि शत्रु को मत छोडो, जिसके कारण जीवन के असुरक्षित होने का अनुमान है- उसे मत छोडो। इसी अनुमान का शिकार बनी एक असहाय मगर।

इस बदहाल उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्र्वर में एक प्राणी-संग्रहालय है। नाम है नंदन कानन अर्थात्‌ स्वर्ग का बगीचा। और वाकई मैंने जितने चिडिया घर देखे हैं, नन्दन कानन मेरा सबसे पसंदीदा है। यहाँ प्राणियों को केवल पिंजरे में बंद करके नहीं रखते, बल्कि उनकी पैदावार बढाने का उद्यम भी किया जाता है। यहाँ गोह, मगर, काला चीता और सफेद शेर की पैदाइश के केंद्र बने हुए हैं जिनके अच्छे परिणाम आ रहे हैं - और इन प्राणियों की संख्या धीरे-धीरे बढ रही है। करीब पचीस वर्ष पहले इस पैदावार केंद्र की स्थापना हुई। तबसे कार्तिक के पिता इसके मगर-पैदावार केंद्र में काम करते थे। फिर कार्तिक ने भी यहाँ काम करना शुरू किया। आज उसकी उम्र होगी कोई चालीस - पैंतालीस साल की। उसका काम है मगरों की निगरानी करना। पहले उनके अंडों की देखभाल, फिर जब मगर के बच्चे पैदा होते हैं, और उनका आकार प्रकार बढता है, तो उन्हें उचित जगहों पर ले जाना। इतना ही नहीं, कार्तिक और उसके अन्य साथी कर्मचारी इनकी गिनती भी रखते हैं । गिनती के लिये इन बच्चों की खाल पर चाकू या किसी तेज धार वाले हथियार से सांकेतिक चिन्ह बनाये जाते हैं - जैसे धोबी अपने कपडों पर गिनती के लिये मार्क लगाते हैं - कुछ इसी तरह से। इस प्रक्रिया में मगर की कोई जखम इत्यादि नहीं होती है। लेकिन यह काम तभी करना पडता है जब मगर के बच्चे छोटे हों।

नंदन कानन में जो प्रजाति पैदा की जाती है वह घडियाल प्रजाति है, जो नरभक्षी नहीं होती। इसके विपरीत उड़ीसा में बौला और कुम्हारी नाम मगर की दो अन्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो नरभक्षी हो जाती हैं।

यह यह घटना घटी तब उड़ीसा प्रशासन के इरिगेशन विभाग में श्रीमती अग्निहोत्री अतिरिक्त सचिव थीं। एक दिन उनके पास कटक कलेक्टर ने एक अजीब सा टेलिग्राम भेजा। उसमें लिखा था कि पुरी मेन कॅनॉल में नहर के मुहाने से करीब चालीस किलोमीटर दूर प्रतापपूर गांव के आसपास नहर में एक मगर देखी गई है। नहर में मगर आ जाने के कारण आस पास की ग्रामीण जनता डरी हुई है। पिछले दो दिनों से गाँववाले मगर को मारने का प्रयास करते करते थक चुके हैं। मगर का बंदोबस्त तत्काल न हुआ तो गाँव वालों ने ''रास्ता रोको'' की धमकी दी है। कम से कम चार गाँवों के ग्रामीण रास्ता रोको में शामिल होंगे। अतएव आवश्यक है कि पुलिस विभाग, सिंचाई विभाग और वन विभाग तत्काल इस मगर को मारने की कारवाई करें। प्रार्थना है कि मुख्यमंत्री स्वयं इस मामले पर गौर करें। अन्यथा ग्रामवासियों ने आक्रोश भरे शब्दों में अपनी भावना व्यक्त की है।

इस टेलीग्राम से भुवनेश्र्वर के मंत्रालय में खलबली मच गई। प्रायः सभी वरिष्ठ अधिकारियों का मत था कि मगर को मारा न जाय। केवल पकड कर नहर से बाहर कर दिया जाए। इस काम की जिम्मेदारी श्रीमति अग्निहोत्री को दी गई।
तत्काल वन-विभाग के अधिकारियों की एक टुकडी प्रतापपुर के लिये रवाना हो गई। कटक जिला वन-अधिकारी इस टुकडी के प्रमुख थे।

पहले यह मगर नहर में पानी की दिशा के साथ ही जा रही थी लेकिन अचानक उसने अपना रूख बदल दिया और अब वह नहर की विपरीत दिशा में तैर रही थी। ग्रामवासियों का मानना था कि वह बौला जाती की नरभक्षी मगर थी। मगर पानी से ऊपर भूले भटके ही दिखाई देती थी। कारण यह था कि वह स्वयं ग्रामवासियों से डरी हुई थी। नहर के दोनों किनारों पर लोगों ने एक मानवी श्रृंखला तैयार की थी। लाठी - काठी लेकर मगर को मारने के लिए लोग मुस्तैदी से तैनात थे। इसके अलावा भयानक शोरगुल, नगाडे, ढोल इत्यादि पीटकर उसे डराने का प्रयास भी किया जा रहा था। ताकि डर कर वह बाहर आये तो उसे मारा जा सके। रात में भी लोग नहर के पास से हटने का नाम नहीं ले रहे थे, बल्कि मशालें जला कर रातभर नहर के किनारों पर पहरा दे रहे थे। पुलिस भी उन्हें हटाने में असफल हो रही थी। या शायद खुद पुलिस का मनोबल ही कम पडा रहा था।

मगर ने जो तैरने की दिशा बदली थी वह भी ग्रामवासियों के डर से। इससे दो बाते हुईं - एक तो यह कि प्रवाह के
विरूद्ध मगर की तैरने की गति धीमी हो गई थी। दूसरी यह कि जिन ग्रामवासियों ने राहत की साँस ली थी - कि चलो मगर
हमारे गाँव से आगे चली गई- वे अब मगर के वापस आने के खयाल से फिर डर गये। इसी प्रकार चार दिन बीते।

इस बीच कुछ अधिक जानकारी सिंचाई विभाग के हाथ लगी। उसका कुल अर्थ यही था कि नंदनकानन के मगर केंद्र में पैदा होने वाले घडियालों के बच्चे थोडे बडे हो जाते हैं तो उन्हें महानद के विशाल पात्र में छोड दिया जाता है।

हमारे देश में बाकी नदियों को स्त्रीलिंगी माना जाता है परंतु ब्रहमपुत्र और महानद ये दो नद अर्थात्‌ पुल्लिंगी माने जाते हैं। इस महानद का उद्गम मध्य प्रदेश में होता है और उड़ीसा के कई जिलों को सींचता हुआ आगे समुद्र में मिल जाता है। कटक के पास इसी महानद पर एक सौ दस किलोमीटर लम्बी नहर बनाई गई है जिसका नाम है पुरी मैन कॅनॉल। इसका मुख्य दरवाजा कटक के पास मुंडली गांव में है । दो वर्ष पहले दरवाजा टूट गया था, जिसे मामूली तौर पर ठीक ठाक कर लिया गया था। लेकिन दरवाजा अभी पूरी तरह ठीक नहीं था।

महानद जहां अंगुल जिले के टिकरपाडा क्षेत्र से बहता है, वहाँ दोनों ओर ऊंची ऊची पर्वत श्रेणियाँ हैं और नद का पात्र काफी गहरा है। यहीं पर एक गॉर्ज में नद को रोककर नहर के लिये पानी छोडा जाता है। यह जगह मगर के बच्चों के लिये अच्छी सुरक्षित जगह मानी जाती है। बच्चे बडे हो जाते हैं तो उन्हें समुद्र के आसपास नद के पात्र में छोड देते हैं-फिर वे चाहे जहाँ जायें।

नंदनकानन के कार्तिक का मानना था कि प्रतापपुर गाँव के कॅनॉल में फँसी मगर नंदनकानन की घडियाल मगर ही थी। वह टीकरपाडा के गॉर्ज में पली होगी। वहाँ से कभी तेज प्रवाह में बहती हुई वेस्ट वेअर के रास्ते कॅनॉल के मुहाने पर मुंडली गाँव में पहुँची होगी। वहाँ दरवाजा तो टूटा ही था, उसी में से निकलकर नहर में आ गई होगी।

कुल मिलाकर कार्तिक का यह मानना था कि नहर में फँसी मगर नरभक्षी बौला जाति की नहीं, बल्कि घडियाल जाति की थी और उसे मारने के बजाय जिंदा पकड लेना चाहिये। अब अधिकारियों का भी यही मत था। कार्तिक के आग्रह पर उसे भी टीम में शामिल कर लिया गया।

लेकिन ''मगर पकडो टीम'' चार दिनों से मगर को पकड नहीं पा रही थी। उधर गाँव वाले मगर मारो, मारो की रट लगाये हुए थे। इतनी बडी मगर पकडने लायक जाले वाइल्ड लाइफ कन्जर्वेटर के पास या सिंचाई विभाग के पास नहीं थे। दूसरी ओर मगर का नाक जैसे ही पानी के ऊपर दीख जाता तो गाँववाले डर जाते और मारो, मारो का शोर मचाने लगते, जिससे मगर फिर पानी के अंदर चली जाती और उसका अता पता ढूँढना मुश्किल हो जाता। नाव से नहर के चक्कर लगाकर और अन्य राज्यों से जाले मँगवाकर भी टीम मगर को पकड नहीं पाई। अन्ततः कुछ स्थानिक मछुआरों को यह काम सौंपा गया। मगर को बिना जख्मी किए जिंदा पकडने के लिये तिगुनी मजदूरी तय हुई।

यों किसी प्रकार मगर पकडी गई और पानी से बाहर लाई गई। तब गाँव वालों को रोकने के लिये खुद पुलिस डी० आय्‌ जी० मौजूद थे ताकि गाँववाले बेकाबू होकर उसे मार ही न दें।

फिर उस मगर को जीप में डालकर नंदनकानन लाया गया। वह इतनी पस्त हो चुकी थी कि अपना जबडा खोलकर 'आ' नहीं कर सकती थी। पूँछ भी नहीं हिला पा रही थी। सामने रखी मछलियाँ भी नही खा सकती थीं। डॉक्टरों ने उसपर औषध उपचार करना आरंभ किया। लेकिन सब बेकार। दूसरे दिन सुबह तक उसकी मृत्यु हो गयी। जब मौत का कारण जानने के लिए उसका शव-विच्छेदन किया तो पता चला की ऑक्सीजन की कमी और आत्यंतिक मेहनत व थकान से मौत हुई।

हमारी धारणा यह होती है कि मगर तो जलचर है, उसे भला हवा की क्या जरूरत। लेकिन ऐसा नहीं है। मगर भी हमारी ही तरह हवा में साँस लेती है। इसलिये उसे बीच बीच में पानी की सतह पर आकर, अपनी थूथनी बाहर निकाल कर अपने फेफडों में हवा भरनी पडती है। लेकिन यह मगर तो साँस ही नहीं ले पा रही थी क्योंकि लोगों के डर से वह पानी के बाहर अपनी नाक भी नहीं निकाल पाती थी। वह तैरना छोडकर सुस्ताना चाहे तो वह भी नहीं कर सकती थी। प्रवाह से उलटी दिशा में तैरने के लिये भी मेहनत पड रही थी और थकान बढ रही थी। इसी बीच उसके गले और पूँछ जखम हो गये थे। इन सबके बाद वह बच नहीं पाई।

मगर की मौत की बात सुनकर श्रीमती अग्निहोत्री से नहीं रहा गया। कल शाम ही की तो बात थी कि मगर को जिंदा ला पाने का संतोष और आनंद पूरी टीम ने एक साथ मनाया था। वे खुद गईं देखने। कार्तिक भी वहाँ था। सबसे पहले उसी ने सुझाव दिया था कि हो न हो यह टिकरपाडा की कोई भूली भटकी मगर है। अब उन्हें देखकर कार्तिक सामने आया। बोला - '' माँ, देखो - - - -'' मगर की पूंछ पर तेज छुरी से काटकर बनाया हुआ निशान था। जाहिर था कि वह मगर कभी किसी दौरान कार्तिक के हाथों पली थी। उसे दिखाते हुए कार्तिक की आँखों में आँसू थे।

इस घटना के कुछ दिनों बाद श्रीमती अग्निहोत्री की बेटी अर्थात्‌ मेरी भाँजी मेरे पास रहने आई। उन्हीं दिनों नाशिक के अखबार में खबर आई कि शिकार की तलाश में जंगल से गाँव आ पहुँचे दो बाघों को एक कमरे में बंद करने के बाद गॉववालों ने उन्हें बाहर से पत्थर मारमार कर मार दिया - क्योंकि उन्हें पकडने वन विभाग के जो अधिकारी आने वाले थे, उन्हें बेहोशी का इंजेक्शन खोजते हुए देर लगी थी। बिटिया को याद आई मगर की मौत। उसने मुझसे पूछ ही लिया - बुआ, तब मगर को और अब बाघों को लोगों ने क्यों मार दिया? जबकि सच्चाई तो यह है कि वे ही हमसे डरे हुए हैं। मैंने उसे बताया कि अभी हमारे लोगों की सोच सही नहीं हुई। वे अब भी मगर से, बाघ से, साँप से डरते हैं। उन्हें दोस्त नहीं मानते। उन्हें बचाने के तरीके नही सोचते- न ही प्रकृति के चक्र में उनके महत्व को समझते हैं। जब तक हम गाँव वालों को नहीं सिखा लेते कि इनसे मत डरो, तब तक इन प्राणियों की योंही अकारण मौत होती रहेगी।

१८-- कीटक छंद --4

कीटक छंद

मेरा अतिप्रिय कीड़ा है काला भंवरा। कोंकण में या सुदूर गांवों में कभी जाना होता है तब रात में ये कमरे में आ जाते हैं। वरना बडे शहरों में अब घर के अंदर आने वाले भँवरे कहाँ मिलेंगे। लेकिन ऐसी बुरी स्थिति भी नही। हमारे बगीचे के कोने में अमलतास का पेड है। ग्रीष्म की तपती धूप में इसकी सारी पत्त्िायाँ झड चुकी होती हैं। पेड पर पीले फूलों के गुच्छम गुच्छ लटकते होते हैं और उनकी मंद मधुर सुगन्ध चहुँ ओर छा जाती है। ऐसे दिनों में भंवरों का एक झुण्ड वहां आ जाता है और दस-बारह दिन रहता है। सुबह सुबह वे भंवरे गुंजन करते हुए फूलों पर आ जाते हैं। ऊपर नीचे उडते हुए ऐसे लगते हैं मानों माला में काले मोती पिरोए हों। तब लगता है कि हमारा इतनी मेहनत से बगीचे में अमलतास लगाना सार्थक हो गया।
घर के अंदर चींटी, छिपकली हो तो मुझे आपत्ती नही होती। लेकिन एक छोटा हानिकारक कीडा कई घरों में रहता है- यह है कसर, जो खास कर ऊनी कपडे खा जाता है। यह अपने चारों ओर शकरपारे की शकल का एक चिपटा नाखून के चौथाई आकार का घर बना लेता है। यह दीवार से लटका होता है और देर तक कोई हलचल नही करता। रंग भी ऐसा कि दूर से लगेगा मानों सिमेंट का धब्बा पडा हो। घर की अलमारियों मे पडे कपडे इससे बचाना हो तो नाफ्ता की गोलियाँ डालना जरूरी है। रेशम कीडे की तरह यह भी अपने कोष में सो जाता है और बाद में इससे छोटे छोटे उडने वाले कीडे निकलते हैं जो प्रायः रसोईघर में अनाज के डिब्बों में घुसकर अंडे देते हैं और अनाज को खराब करते हैं।

मकड़ी, सुरवंट, कसर, ये सारे कीडे अपने मुँह से कोई चिपचिपा पदार्थ निकालकर उनसे अपना जाला या घर का कोष बनाते हैं। एक और कीडा मैं जानती हूँ, जो अपनी लार से गोंद बनाता है। यह पेडों की पतली पतली आधा इंची डण्डलें जमा करता है, मुँह से निकले गोंद से चिपकाकर उनकी एक पोटली बनाकर उसके अंदर रहता है। इसके शरीर के ऊपर हिस्से में नाखून जैसे अवयव होते हैं, जिन्हें पत्त्िायों पर गाड कर पत्तों के नीचले हिस्से पर लटकते हुए चलता है। ऐसी कुछ पोटलीयाँ भी मैंने इकट्ठी की हैं।
रेशम कीडे की तरह पलाश के पत्ते पर पलता है लाख का कीडा। एक जमाना था जब लाख का बड़ा कारोबार होता था- रंग बनाने के लिए। कृत्रिम रंगो के आने के बाद वह कारोबाद बंद हो गया। और अब तो लाख का कीडा भी नष्टप्राय कीडों की सूची में चला गया है।

बचपन में मैंने अपनी माँ से एक युक्ति सीखी थी। कोई भी कीड़ा दीखे, उसे मुट्ठी में उठाकर घर से बाहर फेंक दो। कुछ जहरीले या तेज डंख वाले कीड़े छोड़कर, माँ ने मुझे उनका अच्छा परिचय करवा दिया गया था, जैसे- एक जहरीला कीड़ा था बिच्छू की मौसी। आधे अंगुल लंबे इस कीड़े का मुँह बिच्छू के मुँह जैसा दीखता है और यह डंख भी मारता है अपनी पूँछ की तरफ से। या फिर गरमियों में नल या दूसरी ठंडी जगहों के पास निकलने वाला शतपद। मजा यह है कि केंचुए या सुस्त चाल से चलने वाले शतपद जहरीले होते हैं। उनकी पहचान भी माँ ने सिखा दी थी। टिड्डे, देवी का घोडा, बीटल्स, बारिश में निकलने वाले लाल-लाल बीर-बहुटी, इत्यादि कीड़े या तिलचट्टे भी वह मुट्ठी में पकड़ लेती थी।
बाद में मैं पटना के होस्टल में रहने लगी तो माँ से सीखे तरीके से कीड़े उठाकर दूसरी लड़कियों पर रौब जमाती। एक बार एक कीड़े ने ऐसी दुर्गंध वाला द्रव पदार्थ हाथ पर छोड़ा, जिसकी दुर्गंध निकालने में चार-पाँच घंटे लग गए। मेरी दोनों रूममेट और बाकी लड़कियाँ मेरे पास आतीं, सूँघती, 'छिह-छिह' करतीं और मुझ पर हँसती हुई निकल जातीं। मेरा सिर इतना कभी नहीं भिन्नाया। अब मैंने वह तरीका सीमित कर दिया- केवल किसी छोटे बच्चे को सिखाना हो तो करके बताती हूँ, वरना मैं मुट्ठी में कीड़े नहीं पकड़ती।

१८-- कीटक छंद 3 - टोकरी में सुरवंट

टोकरी में सुरवंट
एक बार हमारे घर के आम के पेड पर हमने कई सुरवंट देखे। गहरे हरे रंग के, रोएंदार शरीर वाले सुरवंट। सुरवंट का शरीर रोएंदार हो तो इसका अर्थ है उससे तितली निकलेगी मॉथ के सुरवंट का शरीर चिकना होता है। सुरवंट के रोएं देखने में तो मुलायम, रेशम की तरह होते हैं, लेकिन शरीर में लग जाएं तो डंख की तरह चुभते हैं और देर तक इनकी जलन कम नही होती।
सुरवंट बहुत थे- हमें डर लगा कि अब तो हमारे आम का पेड गया। ये सारी पत्त्िायाँ खा लेंगे। हमने एक टोकरी में कुछ कागज बिछाए। दूसरे कई पेडों से मुलायम पत्ते तोड कर सुरवंटों के खाने का इन्तजाम किया। आम की वे पत्त्िायाँ भी तोडीं,
जिनपर सुरवंट थे। टोकरी हमने बच्चों के कमरे में रख दी। उनसे कहा- देखो, ऐसा मौका हमेशा नही मिलता। ध्यान से देखते रहना कि सुरवंट कैसे बढते हैं, कैसे तितली बनते हैं, इत्यादि।
अब तक रात हो चुकी थी। कीडे ज्यादा हलचल नही कर रहे थे, न ही वे पत्त्िायाँ खा रहे थे। रात में भी हमने बार बार उठकर देखा। सारे सुरवंट शांत थे।
लेकिन दूसरे दिन सुबह होते ही मानों सारे सुरवंटो में जोश भर गया। वे टोकरी से बाहर आकर टेबुल पर किताबों पर, अलमारियों पर चढने लगे। हमने जल्दी जल्दी उन पचास साठ सुरवंटों को पोस्टकार्ड पर उठाकर वापस टोकरी में डाला। मैसूर में सीखा था कि जहाँ उनकी विष्ठा होगी वहाँ वे नही रहते। इसलिए टोकरी में बिछाए कागजों में छेद कर दिए, ताकि छोटे कंकड जैसी विष्ठा नीचे जमा हो जाए। पहले दिन दूसरी पत्त्िायाँ भी खाने को रखी थीं, जबकि आज केवल आम की पत्त्िायाँ रखीं। सुरवंट फिर चुपचाप टोकरी में दुबक गए।
दो-तीन घंटे बाद फिर वही खेल दुहराया गया। यों दोपहर ढलने तक तीन चार बार हुआ। भला हो कि उस दिन रविवार था, सबकी छुट्टी थी। लेकिन सुरवंटों के डंख हरेक को कम या अधिक बार चुभ चुके थे। आखिर हमने हार मान ली। हमारे आंगन के सामने एक खाली जमीन थी, जिसपर कई छोटे झाड झंखाड उगे थे। उन्हीं के बीच में हमने सुरवंटो भरी टोकरी को छुपा दिया। ऊपर से पुराने कपडे भी डाल दिए ताकि सुरवंट देखकर कोई पक्षी उन्हें खाने के लिए न आ जाए। दूसरे दिन सुबह उधर जाकर देखा तो टोकरी में एक भी कीडा नही था। उन सुरवंटों को पक्षी खा गए या चीटीयाँ? झंखाड की कटीली झाडियाँ उन्हें चुभीं, या उन्होंने अपने को संभाल कर रखा- कुछ पता नही।
दसेक दिन बाद हमारे बगीचे में हल्की हरी तितलियों का एक झुण्ड दीख गया। लेकिन कैसे कहें कि वे हमारे ही सुरवंटों की तितलियाँ थीं या कोई दूसरी? वैसे सुरवंट या तितली दुबारा नहीं देखी।
हमारे बगीचे में बडे जतन से लगाया एक जायपत्री का पेड भी है। इसकी कोमल पत्त्िायों की गुलाबी छटा बडी मोहिनी है। उसी छटा के गुलाबी सुरवंट भी मैंने कभी कभी उन पत्तों पर देखे हैं। लेकिन अब हम उन्हें कुछ करने का साहस नही करते।

१८-- कीटक छंद 2 -- रेशम कीड़े की बात

रेशम कीड़े की बात
एक बार हम बीजापुर गए। वहाँ गोवलकुंडा किला अपनी विशालता और मजबूती के लिए प्रसिद्ध है। वहाँ रेशम उद्योग भी अच्छी तरह प्रस्थापित है। रेशम के कीड़ो का भोजन है शहतूत के पत्ते। हमारे साथ रेशम उद्योग विभाग में काम करने वाले अधिकारी भी थे। हमने देखा कि कैसे कर्नाटक सरकार के प्रोत्साहन से बीजापुर के किसान बडी मात्रा में शहतूत की खेती करते हैं। खेतों में लगने वाले खास पेड तो चार-पांच फुट उंचे ही होते है, वरना शहतूत के बडे वृक्ष भी होते हैं। अंडे से बाहर निकले रेश के कीड़े इनके पत्ते खा खाकर पंद्रह दिनों में मोटे हो जाते हैं। फिर वे सुस्त हो जाते हैं और खाना रोक देते हैं। तब उन्हें उठाकर खासतौर से बनी बांस की टोकरियों में या सूपों में रखा जाता है। अक्सर ये गोलाकार सूप, जिसे 'चंद्रिका' कहते हैं, दीवार पर फोटो की तरह टांग देते हैं और एक एक कीडे को उस पर जड़ देते हैं। दो कीडों के बीच अंतर रखा जाता है। अब कीडे अपने मुँह की लार से एक खास तरह का धागा बनाकर अपने चारों ओर एक मजबूत दीवार का घर बना लेते हैं। धागा उसके चारों ओर लिपटता रहता है। इस प्रकार दस पंद्रह दिनों में बन जाता है रेशम कोष।
इसी रेशम कोष को गरम पानी में उबाल कर उसकी बाकी सारी चिकनाई निकाल देते हैं और धागे को तकली या चरखे की तरह लपेटते हैं। फिर इसी धागे से रेशमी कपडे बुने जाते हैं। इस प्रकार शहतूत की खेती और रेशमी की पालने का एक बडा व्यापार कर्नाटक के किसान करते हैं। आज कल तमिलनाडु और आंध्र भी इसमें आगे हैं। धागा निकल जाने के बाद कोष के अंदर की खोल बच जाती है जो देखने में बडी सुन्दर, चमकदार, टिकाऊ लेकिन बिना काम की होती है। लोग इससे डेकोरेशन पीसेस या हार बना लेते हैं।
हम भी कई रेशम कोष इकट्ठे कर लाए। कुछ वर्षों में और मौके आते गए। हम मैसूर की रेशम रिसर्च इन्स्टिटयूट गए। वहाँ देखा, दूसरी तरह के रेशम का कीडा और उसका कोष। इसे 'टसर रेशम' कहते हैं। इसके कीडे जंगलों में साल, हर्रे और ओक के पेडों पर पलते हैं और उन्हीं पर अपने कोष बनाते हैं। आदिवासी उन्हें चुन लेते हैं और खादी ग्रामोद्योग या रेशम उघोग के आफिसों में बेच देते हैं। वहाँ इनसे धागा कातने की ट्रेनिंग दी जाती है।
टसर रेशम का कोष शहतूत रेशम के कोष से काफी बडा होता है। शहतूत रेशम का कोष एक बडे बनारसी बेर जैसा होता है जबकि टसर रेशम का कोष छोटे दशहरी आम जितना। हमारे देश में टसर की उपज करने वाले राज्य हैं- मध्यप्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र। मैसूर में हमने सोम साल के कुछ वृक्ष देखे, जो असम में घने जंगलों से मंगवाकर खास तौर पर पढाई के लिए लगाए थे। असम के इन वृक्षों पर एक तीसरी तरह का रेशम बुनने वाला कीडा पाया जाता है जिसे 'मोंगा रेशम' कहते हैं। यह दुनियाँ का सबसे चमकीला और सबसे मजबूत रेशम धागा होता है, जिसका सुनहरा रंग सोने जैसा चमचमाता है। पूरे संसार में असम ही ऐसा क्षेत्र है जहाँ सोम सोल के वृक्ष हैं और मोंगा रेशम बनाने वाले खास कीडे। लेकिन सोम साल की प्रजाजि और इन कीडों की प्रजाति दोनो ही नष्ट होने की कगार पर हैं। माना जाता है कि अगले पचास वर्षों में ये पूरी तरह विनष्ट हो जायेंगे। अभी तक हमारे देश में इन्हें बचाने की कोई ठोस योजना नही बनी है।
हमारे देश में ही रेशम कीडों की एक चौथी प्रजाति भी पाई जाती है जो एरंडी के पत्ते खाकर पलती है। इनके रेशम को एरी-रेशम कहते हैं। यह हुनर केवल बिहार तथा उड़ीसा के कुछ गांवों में ही बाकी रहा है। माना जाता है कि एरी-रेशम के कीडों की जाति भी नष्ट होने की कगार पर है। इसके कोष भी टसर के कोष जितने बडे लेकिन हलका भूरापन लिए होते हैं।
यदि छेडा नही गया, तो पंद्रह दिनों में रेशम कोष के अंदर का कीड़ा एक खूबसूरत तितली बन जाता है- इन तितलियों को 'मॉथ' कहते हैं, क्यों कि एक साधारण तितली से ये थोडे अलग होते हैं। इनके पंखों पर रेशम जैसी चमक होती है। कई वर्षों बाद हमने अपना रेशम कोषों का संग्रह भी ऑर्थोपोडा म्यूझियम को दे दिया।
साधारण तितली हो या रेशम तितली- उनके जीवन मे कई परिवर्तन आते हैं। नर-मादा तितलियाँ नाचते हुए आपस में मिलते हैं। इस मिलन के बाद मादा तितली अपने चहेते पेड के पत्तों के नीचले हिस्से में अंडे देती है। सूजी के दानों के
आकार के अंडे। मैसूर की संस्था में शहतूत की तितलियों को एक विशाल जालीवाले बंद घर में रखा जाता और मिलन के बाद मादा तितलियों को अंडे देने के लिए कागजों पर रख दिया जाता है, ताकि ये अंडे किसानों को बेचे जा सकें। लेकिन टसर, मोंगा या एरि रेशम की तितलियाँ बंद घरों में अंडे नहीं देती हैं। उन्हें खुला छोड़ना पड़ता है।
अंडे फूटकर उनसे कीडे निकलते हैं। मराठी में इन्हें सुरवंट कहते हैं। वे बडे पेटू होते हैं और पत्त्िायाँ खा खाकर, फूल जाने के बाद अपने चारों ओर कोष बनाकर सो जाते हैं। नींद में ही इनके शरीर में परिवर्तन होता है और वे बन जाते हैं खूबसूरत तितलियाँ जो कोष को काटकर बाहर निकलते हैं। इस परिवर्तन को मेटामॉर्फसिस कहते हैं।

१८-- कीटक छंद 1 -- दीमक रानी

१८-- कीटक छंद

मेरे बचपन के दिनों में बच्चों की मासिक पत्रिका 'चंदामामा' एक संस्कृति बनी हुई थी। कितने विचारों के बीज इस पत्रिका ने कितने बालमानसों में बोए इसकी गिनती बहुत बडी होगी। एक बार उसमें चींटी और चीटों के विषय में एक लम्बी लेखमाला चली। एक तो यह लेखमाला अत्यन्त मनोरंजक रूप से लिखी थी ; दूसरे रंगीन चित्र। उस जमाने में इतने रंगीन चित्र नही हुआ करते थे। लेखमाला में चीटीयों के राज्य, उनके टोली युद्ध, उनकी रानी, वर्षा के समय अपने अंडे मुँह में लेकर बिल से निकलना और एक लम्बी कतार में दूसरी जगह पहुँचना, उनके मुहल्ले, गांव, किले इत्यादि बाबत जानकारी थी। हो न हो, तभी
से मुझमें कीडों के प्रति रूचि बढी। वर्षा ऋतु के ठीक पहले अपना घर बदलने के काम में जुटी चीटीयाँ मैंने कई बार देखी हैं। काली चींटी काटती नही है, जबकि लाल चींटी काटकर एक तीव्र डंख दे जाती है। लेकिन काली चींटीयों और लाल चींटीयों के टोली युद्ध में मैंने लाल चीटीयों को हारते देखा है। इसी से काली चीटीयों को मैं अपना दोस्त ही मानती हूँ।
अब चींटों की बारी। घरों में प्रायः काले चींटे ही आते हैं जबकि लाल चींटे घने जंगलों में ही पाए जाते हैं। वैसे काले चींटे, अपनी ओर से कुछ नही करते लेकिन छेडो तो काटते हैं। चींटीयाँ जितनी नियमबद्ध और अनुशासन प्रिय होती है, चींटे उतने ही अनुशासन हीन और बेतरतीब होते हैं। कई चींटे कतार बद्ध रूप से कहीं जा रहे हो, ऐसा दृश्य सहजता से नही मिलेगा। हाँ, बागों में कई बार उन्हें कतार बनाकर जाते हुए मैंने देखा है। कभी-कभी दो कतारें भी होती हैं, आनेवाले चींटों की और जाने वाले चीटों की। इनके चलने से मिट्टी में एक रेखा सी बन जाती है। मानों काले चींटों का टू-लेन-हाइवे। यदि कोई दूसरा प्राणी उधर से नही चले तो चींटों की यह टू-लेन-हाइवे देर तक बनी रहती है। एक दिन अपने कुछ मित्रों को मैं पहाडी घुमाने ले गई। वहाँ उन्हें चीटों का हाइवे दिखाया। पहले तो वे मानने के लिए तैयार नही हुए। लेकिन कुछ दूर जाकर हमें वाकई एक कतार में चलते हुए चालीस पचास चींटों का झुण्ड मिला। तब जाकर मेरे मित्रों ने माना की 'चंदामामा' की परम्परा कितनी बडी है।
पुणे में एक म्यूझियम ऑफ आर्थोपोडा अर्थात्‌ कीटक-संग्रहालय है। छोटा सा, एक घर के अंदर ही शौकिया रूप से बना। लेकिन यहाँ कीटक जगत्‌ की कई मजेदार बातें देखने को मिलती हैं। चित्र , मॉडेल्स, नमूने हर बार नए सिरे से सजाकर नई नई जानकारियों के साथ लगाए जाते हैं। चीटी और दीमकों के बिल, उनमें बने रास्ते, टनेल्स, रानी का किला, हवा जाने का रास्ता इत्यादि सबकुछ यहाँ देखा जा सकता है। खेकडों की खोल भी हैं और भी काफी कुछ। मैं पांच-सात वर्षों में एकाध बार वहाँ चक्कर लगा लेती हूँ।
बरसात के दिनों में कई बार पंखवाली चींटीयाँ देखी जा सकती हैं। बचपन में एक दिन हमारे आंगन में लगे केले के पेड के पास जमीन से निकल कर आकाश में लपकते हुए पंखीं चींटीयों के झुण्ड देखे। जमीन के किसी छेद से भाप की तरह अथाह संख्या में पंखी - चीटीयाँ निकल रही थी और घर की दीवारों के साथ साथ सारे आकाश को ढँक रही थीं। किताबों में पढा था कि टिड्डों के दल इसी तरह आकाश को ढँकते हुए आते हैं और सारी फसल खा जाते हैं। लेकिन थोडी ही देर बाद जैसे अचानक पंखीचीटीयाँ आईं उतने ही अचानक कई मेंढक, छिपकलीयाँ,गौरेया, काली चिडियाँ जाने कहाँ से आए और पंखीचींटीयों को खाने लगे। धीरे धीरे जमीन से निकलने वाली चीटीयाँ कम हुईं। हमारी दीवारें, आंगन के पेड-पत्त्िायाँ और आकाश साफ हो गए। चीटीयाँ घटने लगीं तो बाकी सभी भक्षक प्राणी भी एक एक करके चले गए। आधे घंटे बाद कोई आता तो कोई नामोनिशान नही मिलता कि यहाँ कुछ हुआ भी है। कई वर्षों तक मेरे मन में वह गूढ रम्य दृश्य बसा रहा, जिसका कोई ओर-छोर नही था।
कई वर्षों बाद मैं पश्च्िाम महाराष्ट्र विकास महामंडल में नियुक्त थी। हमारा कार्यालय एक नई बिल्डिंग में जा रहा था। उसे एण्टी टरमाइट ट्रीटमेंट के लिए अर्थात्‌ दीमक से बचाने के लिए खास व्यवस्था करनी थी। इस काम के लिए राजशेखर नामक सज्जन ऑफिस आए। वे बडी बडी संस्थाओं और बिल्डरों के लिए ऐसे काम करते थे। अपनी जानकारी देते हुए बताया कि कैसे उन्होंने देहरादून की फॉरेस्ट रिसर्च इन्स्टिटयूट संस्था में इस प्रकार की ट्रेनिंग पूरी की है। हाल में ही राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (ग़्क्ख््र) के प्रांगण में दीमक की एक बडी बांबी उन्होंने उखाडी था और बिल के अंदर से निकली रानी दीमक को नमूने के तौर पर फार्मोलिन में रख लिया था। फार्मोलिन एक ऐसा द्रव पदार्थ है कि उसमें मरे हुए कीडे रख देने पर सालों साल तक उनके शरीर खराब नही होते। सभी प्राणिशास्त्र्िायों की पढाई का महत्वपूर्ण साधन है फॉर्मोलिन में डुबा कर रखे हुए कीडे।
मैने उत्साह में भरकर राजशेखर से पूछा- 'किसी दिन मुझे दिखा सकेंगे रानी दीमक?' उस भले आदमी ने अपनी ब्रीफकेस खोली और एक शीशी निकाली। उसमें पारदर्शी फॉर्मोलिन भरा था और अंदर एक मरा हुआ कीड़ा था- रानी दीमक। तो जनाब इसे ब्रीफकेस में रखकर ही घूमते हैं? लेकिन उसे कीडा कहना गलत होगा, क्योंकि मेरे अंगूठे जितनी मोटी पंद्रह सेटीमीटर लम्बी थी वह। वैसे दीमक एक छोटा कीडा ही होता है- लेकिन उनकी रानी दीमक बड़ी होती है। असल में चींटी या ऍण्ट, नहीं, बल्कि दीमक अर्थात टरमाइट होती हैं।
बारिश के समय दीमकों के पंख निकलते हैं और वे आकाश में उड जाते हैं। वहाँ नृत्य करते हुए नर और मादा दीमकों का मिलन होता है। मिलने के बाद दोनों जमीन पर आ जाते हैं और मादा दीमक अंडे देती है। इन अंडो से तुरन्त कामकाजी दीमक निकलते हैं, जो बिल बनाना शुरू कर देते हैं, फिर नर और मादा दीमक उसी में रहने लगते हैं। वर्ष में केवल एक बार यह मौसम आता है जब नर-मादा दीमकों का मिलन होता है। उस समय बिल से निकलने वाले अनगिनत जोडे पशुपक्षी के भक्ष्य बन जाते हैं। यही प्रकृति का नियम है। अन्यथा इतने दीमक पैदा होंगे, जो खतरा बन जाएंगे। बहुत बहुत कम यानी करीब एक करोड में से एक जोडा बचता है और अपना बिल बनाता है।
...........तो यह था उत्तर बचपन में देखे उस गूढ रम्य दृश्य का- दीमक का बिल, मिलन-मौसम में पंखवाले अनगिनत नरमादा दीमकों का निकलना, उनका मिलन-नृत्य, जो हम लोग नही देख पाए, शायद किसी प्राणीशास्त्री ने देखा होगा, और उनका मेंढक-चिडियों-छिपकिलियों के पेट में समा जाना.....। मैं बडी देर तक अभिभूत बैठी रही। इतना तो पता चला कि यदि फिर कभी उस दृश्य को देखना है तो दीमक का बिल ही उसका उत्तर है। मुझे घात लगाकर बैठना होगा, पहले ऐसा मकान चुनना होगा जिसके पास दीमकों की बांबी हो, फिर बारिश के दिनों में चौबीसों घंटे उसकी चौकसी करनी पडेगी, तब कहीं वह दृश्य देखने को मिल सकता है। कोई बात नही, कम से कम पता तो चला कि चौकसी कहाँ करनी है- कर पाऊँ या ना कर पाऊँ
अलग बात है।
मैंने राजशेखर से कहा- यहाँ पुणे में हमारी एक जमीन है, जिस पर घर बनाने का विचार है। लेकिन उसमें भी एक दीमक की बांबी है- करीब चार फूट ऊंची। हमे समस्या है कि उन दीमकों का क्या उपाय करें। राजशेखर ने तत्काल मदद करने का आश्र्वासन दिया।
तय हुआ कि अगले रविवार हमारी जमीन पर जाएंगे। वहाँ दीमक की बांबी हटाई जाएगी। उसमें जो रानी दीमक निकलेगी उसे हम भी रख लेंगे।
रविवार दोपहर मेरे और पास पडोसियों के दस बारह बच्चे कैमरे लेकर पहुँचे। राजशेखर के मजदूर कुदाल, फांवडे ले आए थे। उनके पास फॉर्मोलिन भरी दो तीन बडी शीशियाँ भी थी। हमें उस बांबी में दीमक के द्वारा बनाए रास्ते, सुरंग आदि के फोटो लेने थे। राजशेखर ने बताया कि बांबी के अंदर ऑक्सीजन मिलता रहे इसलिए दीमक कुछ फंगस जीवाणु अपनी कॉलोनी में रख लेते हैं। जैसे हम मवेशी पालते हैं उसी तरह से दीमक फंगस जीवाणुओं को पालते हैं। दीमक अपने खाने के लिए जो भी लकडी के बुरादे और हरी पत्त्िायाँ लाते हैं, उन पर ये जीवाणु भी अपनी पैदावार बढाते हैं- उस प्रक्रिया में वे ऑक्सीजन छोडते हैं, जिससे दीमकों को अपनी बांबी में ताजी हवा मिलती है।
हमें इन सबकी फोटो लेनी थी। सबसे अहम्‌ काम था रानी दीमक को सही सलामत अलग करना। यदि दीमक की बांबी गिराने में सावधानता नही बरती तो वह ढह जाता है और मिट्टी के मलबे मे रानी दीमक कहाँ दबी उसका पता चलना असंभव होता है। फिर तो वह जीवित रहती है और उसके मजदूर दीमक इकट्ठे होकर दुबारा बिल बनाते हैं। इसलिए बांबी को ऊपर से शुरूआत करते हुए परत दर परत हटाया जायगा।
ऊपर की भुरभुरी सतह तो हाथ से ही हटाई गई और हमने देखा कि अंदर खूब कडी सतह है, जिसे कुदाल से खोदना पडता है। दीमक की मांद की पपडियाँ निकलने लगीं। कई कई तो तश्तरी जितनी बडी निकली। जैसा कुम्हार का बनाया खपरैल हो।
हजारों की संख्या में दीमक तितर बितर होने लगे। हम कहते- इन्हें रोको, ये हमारी जमीन पर फैल कर जगह जगह बस जाएंगे। राजशेखर हंसकर उन्हें देखते- आंद्म यह मजदूर दीमक है, आँद्म यह सैनिक दीमक है। इन्हें जाने दो। बिना रानी दीमक के ये दो दिन भी जीवित नही रहेंगे।
दीमक, चींटी, मधुमक्खी, बर्रे इत्यादि में यह विशेषता है कि इनके एक झुण्ड में केवल एक रानी यानी मादा कीडा और एक राजा यानी नर कीडा होता है। बाकी सारे या तो कामकाजी मजदूर होंगे या सैनिक जिनका कोई लिंग नही होता। वे अंडे नही देते, न प्रजाति बढाने में कोई योगदान करते हैं। लेकिन सारे काम वही करते हैं। रानी जब अंडे देती है, तो जरूरत के अनुसार तय करती है कि कितने अंडों में से कामकाजी मजदूर निकलेंगे और कितने सैनिक। जब कोई बिल पर आक्रमण करता है तो सैनिकों की संख्या बढ जाती है और वे शत्रु को डँस-डँसकर अपने झुण्ड की और रानी की सुरक्षा में डट जाते हैं। रानी के शरीर से निकलने वाली एक खास गंध से ही वे उसे पहचानते हैं और उनका पोषण भी रानी के शरीर से निकलने वाले एक विशिष्ट द्रव से होता है। इसी से यदि रानी हटी, तो बाकी मजदूर या सैनिक मर जाते हैं। ऐसी है यह मातृसत्ता व्यवस्था।
अब तक हमने बांबी की परतों की कई बडी-छोटी तश्तरियाँ इकट्ठा कर लीं। फिर बारी आई फंगस जीवाणुओं के कॉलनी की। मधुमक्खी या बर्रे की छत्ते की तरह ही ये भी छत्ते थे। षट्भुज के आकार में दीवारों से लगी दीवारें, अंदर से खोखलीं- ऐसे छत्तों के कई छोटे बडे टुकडे इकट्ठे हो गए। ये सारे टुकडे हम और पड़ोसी अपने अपने घर ले गए। लेकिन पता नही था कि उन्हें धूप में सुखाना पडता है- सो पांच छः दिनों में सारे गल गए। केवल फंगस का एक बडा छत्ता हमारे प्लॉट पर पडा रहा। धूप में सूखता रहा और बच गया। उसे हमने आज तक संभाल कर रखा हुआ है। वैसे ही जैसे किसी पेड का सूखा तना संभालकर रख लिया जाए।
तीन घंटों में हमने कई परतों, कई छत्ते के फोटो लिए। अब बांबी केवल एक फूट बची। यहाँ की रचना खास होती है। इसी हिस्से में एक क्वीन्स चेम्बर होता है। उसे बडी सावधानी से खोदा गया, ताकि वह ढहे नही बल्कि उसे ऊपर ऊपर से ही अलग करके फेंका जा सके। इस काम में राजशेखर के कर्मचारी अनुभवी थे। क्वीन्स चेम्बर पूरा खुद गया तो हमने देखा- दो दो रानियाँ थीं। ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता हे। वहीं पर राजा दीमक भी था जो एक बडे चींटे के आकार का था। हमने वे दोनों रानी दीमक, साथ में एक मजदूर दीमक, एक सैनिक दीमक और राजा दीमक को भी शीशी में डाल लिया। वह नमूना भी हाल तक हमारे पास था, जो अब हमने म्यूझियम ऑफ आर्थ्रोपोडा में दे दिया।
दीमक अपने खाने के लिए पेड के तने के छीलन ले आते हैं जो बहुत कडे होते हैं। उनके सेल्यूलोज का विघटन आसान नही है। इसीलिए दीमक डनहें खा नही पाते। इसी से वे फंगस के जीवाणु लाकर कड़े छिलकों पर उनकी कॉलानी बसा लेते हैं। यह कुछ उसी तरह की प्रक्रिया है जिससे हम मनुष्य मशरूम की पैदावार करते हैं। दीमक की मांद में भी अत्यन्त छोटे आकार के फंगस उगते हैं, जो दीमकों के खाने के काम भी आते हैं। यह भी प्रकृति का चक्र है। वरना पेड के तने के जो छिलके कई वर्षों तक भी विघटित नही हो पाते, उन्हें ये फंगस विघटित कर उन पर फंगस उगाते हैं। ये फंगस दीमक का खाद्य बनते हैं मेंढक जैसे बड़े प्राणियों का। इस प्रकार पेड़ के तनों का अन्नद्रव्य दूसरे जानवरों के लिए जल्दी उपलब्ध होता है।
राजशेखर और बच्चों में दोस्ती हो गई थी। वे कई बातें बता रहे थे। रानी दीमक की लम्बी आयु होती है- पचीस-तीस वर्ष। वह लाखों-करोडों अंडे देती है। साल में एक बार, वर्षारंभ के समय इन अंडों में से नर और मादा दीमक निकलते हैं- बाकी दिनों में केवल मजदूर और सैनिक। रानी से अलग कर देने पर बाकी दीमक जल्दी ही मर जाते हैं।
इस प्रकार ज्ञान की गई बातें सीखकर, दीमक की माँद खोदने का प्रत्यक्ष अनुभव लेकर, साथ ही कई फोटो और संग्रह लायक वस्तुएँ लेकर हम लोग लौटे। स्कूल की प्रदर्शनी में रखने लायक सामान बच्चों के पास इकट्ठा हो गया।अब हमने वे सारी वस्तुएँ कीटक संग्रहालय को दे रही हैं। क्या तुम भी अपने शहर में कीटक संग्रहालय बनवाना नहीं चाहोगे ?

१७-- चिंगी-डेनिस

१७-- चिंगी-डेनिस

कई वर्ष बीते। बच्चे स्कूल जाने लगे थे। एक बार जत्रा देखने गए तो साथ में एक पिंजरा और उसमें तोता-तोती की जोडी भी थी। मुझे और प्रकाश को बुलबुल की याद आई। लगा कि इन पंछियों को पिंजरे में न रखें। फिर भी बच्चों का उत्साह देखकर रख ही लिया। तोते की गले में लाल रंग की चौड़ी लकीर बनी होती है, जबकि तोती का गला बाकी शरीर के रंग जैसा हरा ही होता है। इसी से उन्हें पहचाना जा सकता है। हमने तोते का नाम रखा 'डेनिस'। हाँ, उसी 'डेनिस-दि मीनेस' वाले कार्टून के नन्हें शरारती डेनिस के नाम पर। और तोती का नाम रखा 'चिंगी'। यह भी हमारे जमाने की मराठी तीसरी चौथी कक्षा की पुस्तक का एक नटखट नन्हा पात्र था। बच्चे इस नाम के लिए पहले राजी नही हुए तो उन्हें नटखट चिंगी के कारनामों की कई कहानियाँ सुनानी पड़ीं।
ऐसी ही एक कहानी यों हैं- एक बार चिंगी की माँ चिंगी को साथ लेकर रेलगाडी की सवारी पर निकली। जाना था आठ-दस स्टेशन आगे मौसी के बेटे की शादी में। दोनों जनी महिला डिब्बे में बैठी। अगले स्टेशन पर काला बुर्का ओढे, एक
मोटी ताजी महिला डिब्बे में चढी और चिंगी की बगल में धप्प से बैठ गई। चिंगी खिडकी से बाहर की दुनिया देख रही थी। पहले भागने वाले पेड़ो की कतारें और अब स्टेशन की भीड भाड। उसे बुरा लगा कि उसकी जगह कम हो गई है। ऊपर से यह महिला तो उसे कोने में ठेल रही थी।
उधर चिंगी की माँ अपनी साथी प्रवासी महिला से बातें करने में मशगूल थी।
गाडी चल पडी। अब चिंगी को बाहर के पेडों से कोई मजा नही आ रहा था। उसने अब तक कभी बुर्कें वाली महिला नही देखी थी। उसका नटखट दिमाग उसे चुप न बैठने दे। बुर्के के पीछे क्या है? देखने के लिए वह उतावली हो उठी। उसने हिम्मत की। एक झटके से बुर्कें को थोडा सा ऊपर उठाया और नीचे से अंदर झांका। महिला ने हडबडाकर उसका हाथ झटक दिया और मुँह फेर कर बैठ गई। चिंगी चुप रही।
कुछ देर बाद वह अपनी माँ के पास जा बैठी। फुसफुसाकर बोली- 'जानती हो उस मौसी ने बुर्का क्यों पहन रखा है? क्योंकि उसकी बडी मूछें हैं। उसे शर्म आ रही होगी।'
माँ की सहेली का माथा ठनका। वह एक शिक्षिका थी। अगले स्टेशन पर वह अपनी बोतल में पानी भरने के लिए उतर गई। वापस लौटी तो उसके साथ पुलिस थी। पुलिस बुर्केवाली महिला के पास पहुँची।
चिंगी ने पुलिस को बताया- 'हाँ, इसके चेहरे पर बडी बडी मूंछे हैं।'
पुलिस ने उसे धर दबोचा। बुर्कें की आड में वह एक शातिर चोर था। पुलिस ने चिंगी को इनाम दिया।
कहानी पंसद आई तो 'चिंगी' नाम को मंजूरी मिल गई। डेनिस और चिंगी बच्चों के साथ घुलमिल गए। उन्हें बोलना या सीटी बजाना सिखाने के लिए हमने बडे प्रयास किए। लेकिन वे नही सीखे। डेनिस ने थोडा बहुत धुन पर सीटी बजाना सीख लिया। बाकी केवल टयाँ, टयाँ.....जितना बाकी तोते बोलते हैं।
तोते स्वभाव से ही चुहल बाज होते हैं। डेनिस और चिंगी भी थे। पिंजरे की डंडियों पर फुदकना, एक दूसरे को चोंच मारने का नाटक करना, कटोरियाँ उलट देना इत्यादि। एक प्रिय खेल था, उलट कर पांव और चोंच के सहारे पिंजरे में नीचे से ऊपर तक चढ जाना। हमारा बडा मनोरंजन हो जाता।
फिर भी कभी कभी मेरे मन में प्रश्न आता- ये पंछी इतने खुश कैसे हैं? बचपन में मैंने मराठी की एक लोकप्रिय कविता याद की थी- बडी अच्छी कविता थी- जिसका अर्थ था-
फल भी हैं मधुर खाने के लिए, और हैं कई मेवें।
सोना मढा पिंजरा है- हीरे जडा, रहने के लिए।
फिर भी वह तोता दिन रात मन चित्त में दुखिया रहे।
स्वतंत्र उड़ने के सुख का हर घड़ी स्मरण करे।
मजे की बात कि कई बार बच्चों के शाम के पाठ डेनिस चिंगी के सामने बैठ कर ही होते। उनमें एक से तीस तक पहाडे शामिल थ, गणित के नुस्खे थे, कविताएँ- मराठी, हिंदी, अंग्रेजी की थी, संस्कृत के पाठ थे, कुछ भूगोल, इतिहास के भी। कविता-पाठ में यह कविता भी शामिल थी।
फिर जाड़े की ऋतु आई। एक दिन कडाके की ठण्ड पडी। दो दिन सूरज गायब। तीसरे दिन सूरज दिखा तो बच्चों ने कहा- डेनिस और चिंगी की भी छत पर धूप में ले चलते हैं- बेचारे ठिठुर रहे हैं।
वे ऊपर गए। थोडी ही देर में दौडते हुए नीचे आए- 'माँ, बाबूजी, जल्दी ऊपर चलो, लेकिन कोई आवाज मत करना।'
हम दबे पांव ऊपर गए। अजीब दृश्य था। पिंजरे के अंदर डेनिस और चिंगी 'टयां-टयां' कर रहे थे- हताशा में उपर नीचे हो रहे थे- सिर पटक रहे थे। बगल में पेड पर दस-बीस तोतों का झुण्ड बैठा 'टयां टयां' कर रहा था। दो तीन तोते उड कर दुखी आवाज निकालते हुए पिंजरे तक आते और लौट जाते। मानों कह रहे हों- 'कोई तो इन्हे छुडाओ।'
दो मिनट हुए। बच्चों ने कहा- हम इन्हें छोड रहे हैं। हृषीकेश ने पिंजरे का दरवाजा खोला। चिंगी और डेनिस बाहर निकल, उड कर झुण्ड में चले गए।
खुशी खुशी हमने उसी समय पिंजरे को तोड दिया।
उस रात हमारे घर में लम्बी चर्चा हुई, गेराल्ड डरेल की और उसके अद्भुत चिडियाघर की। एक ओर है शहरों में बढती जनसंख्या और घटता हुआ प्रकृति का साथ। बच्चों का परिचय पेड, पौधों, फूलों से पंछियों से, प्राणियों से नही होता। उन्हें दिखाना पडता है- भैंस क्या होती है, तोते,बिल्ली,बकरी,गाय,जामुन या हरसिंगार के पेङ..... न जाने कितना और क्या क्या ! जो अभिभावक उनके ज्ञानसंवर्धन के लिए सचेत हैं, वे बच्चों को चिडियाघर ले जाते हैं- दिखाने के लिए। लेकिन चिडियाघर का अर्थ है जानवरों की, पंछियों की स्वतंत्रता का उल्लंघन। दूसरी ओर हमारे जंगल कट रहे हैं और वन्य प्राणियों के लायक नही रहे। ऐसी कई प्रजातियाँ हैं जिनके जानवरों की संख्या घट रही है। जंगल अब उनके अनुकूल नही रहे। उन्हें बचाना है तो उनके लिए कोई खास माहौल बनाना पडेगा।
गेराल्ड डरेल ऐसे वन्य-प्राणी-प्रेमी थे जिन्हें बचपन से कई वन्य पशु पक्षियों के साथ एक दोस्त बनकर रहने का अनुभव मिला। दोस्त- जो पिंजरे में बंद होकर न रहे, बल्कि एक सच्चे दोस्त की तरह शरारतें करें, रूठे, मनाए, सुख में, दुख में महसूस करे। बडा होने पर डरेल ने एक विशाल द्वीप पर अपना अजूबा चिडियाघर खोला, जहाँ घायल पशु-पक्षी देखभाल के लिए लाये जाते हैं। नष्ट होने के खतरे में पड़े प्रजातियों के अच्छे प्रजनन की व्यवस्था होती है। जानवरों को पिंजरा नही, खुला वातावरण होता है। उनकी आदतें, खानपान इत्यादि की पढाई की जाती है, उन पर फिल्में बनती हैं। कुल मिलाकर एक पूरी दूसरी दुनियाँ, जो किसी वन्य प्राणी को पिंजरे की कैद दिए बगैर उसकी देखभाल और उससे दोस्ती करती है, और उन्हीं
को अपनी आर्थिक आय का साधन और आने वाली पीढी के लिए पढाई का माध्यम भी बनाती है। डरेल की कई पुस्तकें हमारे घर में 'बार बार पढने वाली' श्रेणी में रखी हैं। उस दिन हमने उन्हें दुबारा पढने के लिए उठा लिया।

१६-- ना हो पिंजरा किसी के लिए

१६-- ना हो पिंजरा किसी के लिए

हमारे घर में एक बड़ा सा पिंजरा है और उसके साथ जुड़ीं दिल को उदास उदास बनाने वाली यादें भी।
मेरी नौकरी के शुरू के दिन थे। घर में केवल मैं, मेरे पति प्रकाश और हमारा प्यारा कुत्ता टोटो था। कभी कभी चोरी-चोरी दूध पीने के लिए पडोस से एक भूरी बिल्ली टपक पडती, जिसे टोटो अनदेखा कर जाता था। कार्यालय के लिए हम दोनों बाहर निकलते तो घर में बाहर से ताला और अंदर पूरा घर टोटो के लिए खुला होता था।
एक दिन सुबह टोटो को घुमाकर लाते हुए प्रकाश को रास्ते में एक जखमी बुलबुल पडा मिला। ऑफिस जाने की भागम्‌ भाग में हमने उसकी थोड़ी मरहम पट्टी की, उसके सामने एक कटोरी में दूध, एक में पानी, कुछ दाने, बाजरा, गेहूँ वगैरा रखे और बेडरूम को बंद करके हम निकल गए। टोटो के लिए यह पहला दिन था जब घर का एक कमरा उसके लिए बंद किया गया था। उसे यह भी अखर रहा था कि इस नए मेहमान से उसे मिलने नही दिया जा रहा। उधर टोटो के कौतुहल से बुलबुल परेशान हो जाता।
तय किया गया कि शाम को आते समय एक पिंजरा लाया जाए। उसमें बुलबुल को रख दिया। शाम को एक बार फिर मरहम पट्टी हुई। सुबह जो पंछी अपनी जगह से हिलडोल नही पाया था वह अब थोडा संभल गया था। पिंजरे की डण्डी पर
आराम से बैठ गया। चलो, जगह तो उसे पसंद आई।
लेकिन अब भी वह अच्छी तरह चल नही सकता था। फिर उडने की बात तो दूर। पिंजरे में रखने से उस पड़ोसी बिल्ली का खतरा भी टल गया।
दो-तीन दिन सिलसिला यही रहा। हम घर में होते तो उसे पिंजरे से बाहर निकाल कर रख देते। हम सामने रहते तब टोटो उसे कुछ नही कहता, न तंग करता। शायद हमारे पीठ पीछे भी नहीं करता, लेकिन आजमाया नहीं। वह टोटो से डरता था। अब उसने चलना-दौडना और थोडी-थोडी दूर तक फुदकना शुरू किया था। ऑफिस जाने के समय और रात में हम उसे पिंजरे में रख देते।
आठ-दस दिनों बाद उसके पंखों में ताकत बढी तो उसे पिंजरे में डालना मुश्किल होने लगा। उसे कई लालच देकर पिंजरे के पास बुलाते। कभी कभी वह खुद अंदर आ जाता ; कभी उसे पकडकर अंदर रखना पडता। उसकी जख्म पर हाथ फेर
कर उसके ठीक होने की जाँच भी हम करते थे। हमें ऐसा लगा कि जख्म भरने में अभी समय लगेगा। वह हमसे हिल-मिल गया था। हम पर भरोसा करने लगा था। पिंजरे की डण्डी पर बैठा वह मधुर आवाज में टिट् टिटयूं गाता था, साथ बाँधी रस्सी पर झूले झूलता था और दाना-पानी खाने के लिए अपने आप ही पिंजरे में आ जाता। हम उससे बातें भी करते, जो शायद उसके लिए बकवास होती होंगी।
एक दिन उसे पकडने गए तो पहली बार उसने पंख फडफडाए और उडकर पहले जमीन से टेबुल पर और वहाँ से खिड़की के पेलमेट पर जा बैठा। हमने आपस में कहा- 'बस चार दिन और। उसके बाद उसे बालकनी से बाहर उड़ा देंगे।'
हमें यह भी डर था कि हमने उसे पहले ही उडा दिया तो वह ज्यादा उड़ नही सकेगा। कोई बिल्ली या चील उसे झपट लेगी।
अब उसे तीन तीन बार पिंजरे के अंदर डालने का समय हमारे पास नही था। क्योंकि उसके पीछे भागना पडता था। लेकिन अब भी रात में उसे पकडकर पिंजरे में बंद करना जरूरी था। वरना वह पंखे से टकरा जाए या बिल्ली आ जाए तो इतनी मेहनत बेकार। वह बाहर रहे तो हम पिंजरा खुला छोड देते, ताकि वह जब भी चाहे अंदर आकर दाना पानी कर ले।
एक रात उसने हमें खूब थकाया। उस पूरे दिन उसने पिंजरे के अंदर जाकर कुछ नहीं खाया था। करीब दो घंटे की भागदौड करके ही हम उसे पकड पाए और पिंजरे में बंद कर पाए। हमें तसल्ली हुई कि अब यह कुछ खा भी लेगा।
दूसरे दिन हमारा ध्यान गया कि यह तो अब भी कुछ नही खा रहा है, न ही आज इसने सुबह सुबह हमें गीत गाकर जगाया है। वह डंडी से नीचे भी नही उतरा था।
अब तक हमें उसके पंखों के फडफडाहट की, गाने की, पिंजरे की कटोरियों को ठनकाने के आवाज की ऐसी आदत पड गई थी कि उसकी चुप्पी देखकर हम अपने काम भी नही कर पाए। क्या चाय नाश्ता, क्या अखबार, क्या नहाना और क्या ऑफिस की सोच। उसकी चुप्पी से हम मायूस हो गए।
हमने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। वह बाहर तक नही आया। थोडी देर बाद हमने उसे निकाल कर जमीन पर रखा। वह बैठा रहा और थोड़ी देर बाद वापस पिंजरे में चला गया। हमारा दिल धक्‌ हो गया। उसे बाल्कनी में रखकर हमने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया- जा बाबा, उड़ जा। वह उडे नही। डंडी पर उसने अपनी पंठ पिंजरे के दरवाजे की ओर कर ली।
उस दिन उसके पिंजरे को वापस बेडरूम में बद कर हम निकल गए। शाम को प्रकाश एक पक्षी-तज्ज के साथ लौटे। उनकी सलाह से किसी दवाई की दो बूंदें भी उसकी चोंच पर डालीं।
फिर भी वह न खाए पिए, न गाए, न उडे, न पिंजरे से बाहर आए। तीसरे दिन तो उसने आँखें भी बंद कर लीं। यहाँ तक कि प्रकाश ने उसे दोनों हथेलियों पर रखकर बालकनी के बाहर का आकाश दिखाया कि अब तो हमें माफ कर दे और उड जा। फिर भी वह गुमसुम बैठा रहा। हारकर हम उसे वापस पिंजरे में रख आए। चौथे दिन उसने प्राण त्याग दिए।
हम उसे किसी भी तरह नही भुला पाए। पंछी ऐसा भी करते हैं? अपनी मर्जी से प्राण त्याग कर सकते हैं? किसी पर इतने नाराज हो सकते हैं कि उसके निषेध में अपने आप पर सजा थोप लें? हम यह कभी नही जान सकेंगे।

१५-- सेमल से मुलाकात



सेमलसे मुलाकात

कभी कभी हमारे मनमें प्रश्न उठता है कि क्या पेड हमारी भाषाको समझते हैं ! मेरा मानना है कि हाँ, वे समझते हैं। ऐसी कई घटनाएँ मेरे साथ घट चुकी हैं। उन्हींमेंसे एक है सेमलकी मुलाकात।

सेमलकी रूईसे सबका परिचय बचपनमें ही हो जाता है। कौन बच्चा होगा जिसने ''बुढ़ियाके बाल'' न उड़ाये हों? गर्मीके दिनोंमें तेज धूपमें चमकते हुए रूईके रेशोंके बॉल उडते रहते हैं। उन्हींसे मैंने सेमलको जानना आरंभ किया। बादमें परिचय हुआ सेमलके फूलोंसे। करीब चालीस साल पहले मुझे अपनी डयूटीके सिलसिलेमें अक्सर कारसे पुणेसे मुंबई जाना पड़ता था। रास्तेंमें खंडालाकी घाटियोंमें गरमीके दिनोंमें सेमलके आठ-दस पेड़ फूलोंसे लदे मिल जाते थे। निष्पर्ण पेडके ऊँचे ऊँचे ठूँठ और एकदम छोर पर गहरे लाल रंगके बड़े बड़े फूलोंके गुच्छ लटके होते थे। यही था मेरे लिये सेमलका पहला दर्शन ।

पुणेमें सेमलके पेड बहुलतासे नहीं हैं। यदा-कदा दिख भी जायें तो भी मैं पेड़को पत्तोंसे पहचान नहीं सकती थी। केवल गरमीके आते आते जब पेड़के सारे पत्ते झड़ चुके होते और लाल-लाल फूल खिले होते, तभी मैं उसे पहचान सकती थी। फूल भी पेड पर टिकते हैं बस दस बारह दिन। फूल झड़ जानेके बाद इसके कोए अर्थात्‌ फल निकलते हैं जो डेढ़-दो महीनेमें पककर अपने आप खुलते हैं और उनमेंसे उड़नेवाली रूई निकलती है, जिसे हम 'बुढ़ियाके बाल' कहकर बचपनमें खूब खेलते थे। उस रूईके गोलेके बीचमें सेमलके छोटेसे बीज होते हैं, जो गोलेके साथ उड़कर दूर-दूर तक चले जाते हैं - इस प्रकार सेमल अपनी प्रजातिको अलग-अलग स्थानोंमें फैला सकता है।

धीरे-धीरे मैं सेमलके कोयेको पहचानने लगी। हरे रंगका बडे शकरपारेके आकार वाला यह फल होता है - करीब पिंगपांगके गेंद जितना। जब यह पककर सूख जाता है तो उसका छिलका चटखकर टूट जाता है और अंदरसे बुढ़ियाके बाल निकल कर उडने लगते हैं जो बीजको उडाकर दूर तक ले जाते हैं। इस प्रकार फूल, फल, बीज और बीजको उडा ले जानेवाले रेशोंसे परिचय हो गया, लेकिन जबतक उनका सीजन हो तभीतक सेमलसे पहचान बन पाती थी, अन्यथा नही।

कई वर्ष बीते। बात इससे आगे नहीं बढी। लेकिन कार्यालयीन यात्रामें जब भी गरमियोंमें दिल्ली आई तो पाया कि गरमियोंमें जगह-जगह सेमलके बड़े-बडे वृक्षोंपर फूल खिलते हैं। इतनी बहुतायतसे सेमलके फूलमैं पहली बार देख रही थी। मुझे बड़ी खुशी हुआ करती

फिर दिल्लीमें ही नियुक्ति हुई। यहाँ न्याय मार्गपर पहली बार मैंने सेमलके पीले फूल देखे। चलो, यह एक और पहचान मिली। फिर एक बार मैं राजाजी मार्गसे आ रही थी तो देखा कि यहाँ गोल चक्करकी परिधि पर सारे सेमलके पेड लगा रखे हैं। उन दिनों सारे पेडों पर केवल सूखे कोए लटक रहे थे जिस कारण मैं पहचान सकी। मेरे साथियोंमें से किसीने पूछा - 'यह अजीबसे पेड कौनसे हैं, जिनमें केवल निष्पर्ण ठूँठ हैं और कोए हैं ?'

'मैंने बडे अभिमानसे कहा, मैं जानती हूँ कि ये सेमल हैं क्योंकि इसके कोए मैं पहचानती हूँ। कुछ ही दिनोंमें यदि हम यहाँसे गुजरें तो रूईके बॉल उड़ते हुए मिल जायेंगे।

कह तो दिया, पर मेरे मनमें एक बात अटककर रह गई। मेरे गणितके हिसाबसे यह सीजन अभी कोएका नहीं, बल्कि कलियोंका था और उसके बाद फूलों को आना था। यदि ये सेमलके कोये थे तो पिछले महीनेभर से मैं इसके लाल फूलोंको क्यों नहीं देख पाई? कैसे मेरी नजरें चूक गईं!? उस दिन अपने आपपर लज्जा आई कि अरे, जिस पेडके फूल, कोए और रूई मेरे मनको इतना आनंदित करते हैं, उस पेडकी पहचान तो मुझे है ही नहीं। कभी मैंने प्रयास ही नहीं किया उसे जाननेका। अब कैसे मिले मुझे यह पेड ! कैसे पहचान बढाऊँ?

मुझे लगता है, सेमलने मेरे मनके प्रश्नको सुन लिया और उसे भी लगा कि मेरी मदद करनी चाहिये। बहुत जल्दी ही मैंने देखा कि न्याय मार्ग और बरदलै मार्गपर सेमलके फूल बिछे पड़े हैं। वहाँके सारे सेमल वृक्ष फूलोंसे लद गये थे। तो यही सही सीजन था और इसका गणित मैंने सही किया था। वह राजाजी मार्गपर जो कोए मैंने देखे, वे शायद सीजनसे पहले ही खिल गए थे। उनपर आगे नजर रखनी होगी।

फिर भी यह बात दिमागमें रह गई कि जबतक मैं इसके पत्तोंको नहीं पहचानती तबतक तो इस पहचानको पूरा नहीं माना जा सकता। दूसरी ओर सीजनसे पहले फूलनेवाले राजाजी मार्गके उस छोटे झुंडका रहस्य भी जानना था।

एक दिन मैं सुबह-सुबह टहलनेके लिए निकली। अपने रोजके रास्तोंसे अलग हटकर दूसरा एक रास्ता पकड़ लिया। अचानक देखा कि जमीन पर सेमलके दो सूखे फूल पडे थे। ऊपर देखा तो एक हरे-भरे पत्त्तियोंवाला पेड़ खड़ा था।

इस पेड़को तथा उसकी पत्त्तियोंको मैं दूसरी तरहसे पहचानती थी। टहनीके छोरपर इसके पत्ते सात-सातके झुण्डमें गोलाकार सजे रहते हैं। इसलिये मैंने मन ही मन इन्हें 'सप्तपर्णीका नाम दे दिया था जो पता नही ठीक था या गलत लेकिन पहचानके लिये फिलहाल चल जायगा। पत्ते बडे बडे होते हैं और पेड़ कभी ठिंगना तो कभी बहुत ऊँचा। यह पेड भी दिल्लीमें बहुलतासे देखे थे और पत्तोंसो पहचान भी सकती थी।

भला इस पेड़का सेमलके फूलोंसे क्या लेना देना ? मैंने पेड़को नीचेसे देखा, फिर अगल-बगलसे देखा । नहीं, कोई तअल्लुक नहीं दीखता था। हर ओरसे हरी-हरी, बडी-बडी, घनी पत्त्तिाँ खिलखिलाकर मेरी परेशानी देख रही थीं। हरेके अलावा कोई दूसरा रंग कहीं नहीं था। इसका और उन ठूँठसमान वृक्षोंका नाता कैसे हो सकता है ?

मैं हैरानसी उस सूखे फूलको हाथमें उठाये अगल बगलके पेडोंसे उसका मिलान करने लगी। किसी पेड पर तो हों ऐसे फूल। लेकिन बाकी सारे पेड छोटे-छोटे झरबेरी या ऐसेवैसे ही थे। उनमेंसे कोई भी सेमल नहीं हो सकता था। खैर ! मैं टहलते हुए दूर तक चली गई। वापस लौटते हुए दूरसे ही मैंने उस पेड़पर नजर रखी। और लो, पेडकी ऊँची ऊँची फुगनियोंपर कुछ लाल लाल दिख रहा था। मेरे आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहा, जब मैंने देखा कि वे सेमलके ही फूल थे। बड़े-बड़े, चिरपरिचित ! लेकिन संख्यामें बहुत कम -- बस सात-आठ।

इसका अर्थ क्या हुआ, भाई? मैं तो मानती थी कि सेमलके पुराने पत्ते झड़ जाते हैं तब फूल खिलनेके दिन आते हैंऔर जबतक कोये टूटकर न बिखर जायें, तबतक नये पत्ते नही आते। दूसरे सेमल-पेडोंमें तो अब तक फूल झड़कर कोए बननेका सीजन आ चुका था - कई कई कोए फूटकर उड़ चुके थे। लेकिन इस पेडमें नये पत्ते उगने भी शुरू हो गए थे और इतनी दूरसे ऊपरकी तरफ कुछ फूल और कुछ छोटे छोटे कोए अभी भी दिख रहे थे। अर्थात ये कुछ छिटपुट आलसी फूल ही बचे थे जो सबसे अंतमें उगे होंगे, इसी से पत्त्तियोंके सीजनमें भी वे पेडपर टिके हुए थे।

कहीं ऐसा तो नहीं कि सेमलका पेड मुझे समझाना चाहता था कि देखो, जिसे तुम पत्तोंके नाते अलगसे पहचानती हो और फूलोंके नाते अलगसे, आज जान लो कि उनका क्या रिश्ता है। इसलिए आगे जब तुम यह पत्ते देखना तो याद कर लेना कि इसमें कौनसे फूल उगते हैं और जब फूल देख लेना तो याद कर लेना कि इसमें कैसे पत्ते लगते हैं ! हो गई ना अब पूरे पेड की पहचान? हाँ यह भी जान लो कि ये सप्तपर्णी नही है।

अब बचे वे राजाजी मार्गके रहस्यमयी पेड जिन पर समयसे पहले ही कोए आ गये थे और जिनपर कभी लाल फूल हों तो मेरी नजरसे चूक गये थेऋतु बदली, सर्दियाँ आईं और देखा कि वे पेड गहरे गुलाबी रंगके फूलोंसे लदे थे। अब मेरी अस्वस्थता चरमपर पहुँची। एक दिन वनस्पति विज्ञानके एक प्रोफसर मिल गये और रहस्य समझानेको तैयार हो गये। हमलोग राजाजी मार्ग गए। प्रोफसर ने समझाया - ये अफ्रीकन सेमल हैं, हमारे सेमलसे बहुत पहले इनका सीजन आता है। इन्हें भी पहचान लीजिए। इनके भी कोये आयेंगे, बुढियाके बाल उडेंगे लेकिन हमारे सेमलकी तरह गर्मियोंमें नही, बल्कि सर्दियोंमें।

वाह भाई सेमल, हो गई पूरी पहचान। तुम्हें बहुत, बहुत धन्यवाद।
जाते जाते ये भी कह दूँ कि दिल्लीमें ही और एक प्रजातिके उँचे, घनेरे, खुशबूवाले फूलोंके पेडसे परिचय हुआ जो असली सप्तपर्णी था।
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१४-- एक मेहमान अचानक

१४-- एक मेहमान अचानक

मैं नाशिक में डिविजनल कमिशनर थी, तब हमारे घर में एक मेहमान आ धमका। या कहो कि मैंने ही अपने गले बाँध लिया। बडा विचित्र था वह मेहमान।
तब मेरे घर में भी बड़ी भागदौड चल रही थी। मेरा तबादला पुणे हो चुका था और मुझे वहां हाजिर होना था। बड़े लडके आदित्य की परीक्षाएँ चल रही थीं, इसलिए उसे अभी डेढ-दो महीने वहीं रूकना था। नए आयुक्त अस्थाना के साथ तय हुआ था कि आदित्य परीक्षा होने तक उनके साथ उसी घर में रहेगा। लेकिन उनके आने में अभी कुछ दिन बाकी थे। उतने दिन आदित्य को अकेला रहना। मुझे अपना सामान बंधवाकर, उसे पुणे भेजना था। अगले हफ्ते मेरी पुणे जाने की तारीख भी पक्की हो गई थी।
ऐसे में एक दिन सुबह सुबह खबर पढीं लिखा था, बगल के मालगांव शहर में एक आदमी को एक विचित्र प्राणी रास्ते पर धीरे धीरे चलता हुआ दीखा। वह आकार में नेवले जैसा, लेकिन काफी बडा था। शायद पास के जंगल में भटककर आया हो। कोई वाहन उसे कुचल न दे इसलिए उस आदमी ने इसे उठाकर पुलिस-चौकी में जमा कर दिया। अब एक ओर फॉरेस्ट अफसर परेशान है कि इसे कहाँ, कैसे भेजूँ, और दूसरी ओर पुलिस सिर थाम कर बैठी है कि तब तक इसका क्या करें?
मेरा पशु-पक्षी-प्रेम जागा। मैंने फॉरेस्ट कन्जर्वेटर को फोन किया- पूछा 'क्या प्लान है'।
वहाँ शेख नामक अफसर था। उसने कहा- उस प्राणी को शाम तक नाशिक ला पायेंगे। वह बहुत बड़ा है, सो लकडी का दस फुट लम्बा, चार फूट चौड़ा बक्सा बनाने के लिए कह दिया है।
ठीक है। लेकिन नाशिक में लाकर उसे रखेंगे कहाँ?
उसने कहा- 'बक्सा आँफिस में पड़ा रहेगा। वह प्राणी बक्से के अन्दर रहेगा।'
मैंने सुझाया- उसे मेरे घर ले आओ। घर बहुत बडा है। स्टोर रूम खाली हो चुका है। वहीं रहेगा। आठ दस दिन में तुम कोई अच्छा प्लान बनाना, फिर ले जाना।
शेख ने भी थोड़ी चैन की सांस ली। इस प्रकार तय हुआ कि शाम तक हमारे घर में वह मेहमान आ जाएगा।
अखबार मे उस प्राणी की तस्वीर छपी थी। उससे अनुमान लग रहा था कि यह पेंगोलिन नामक प्राणी है। आदित्य ने फटाफट इंटरनेट से जानकारी ली- वह क्या खाता है, कैसी आदतें रखता है। उसे कैसे संभाला जाय वगैरह। थोड़ा बहुत इनसाइक्लोपीडिया से भी पढा।
दोपहर को शेख भी मुझसे मिल लिए। उसे थोडा संकोच था कि कमिश्नर के घर में एक जंगली प्राणी को कैसे रखें। मैंने आश्र्वस्त किया कि मुझे और आदित्य को अनुभव है- शेर, मोर इत्यादि का। फिर घर और आंगन भी बहुत बडे हैं। आठ-दस दिन की बात है।
शाम को एक जीप में चार फॉरेस्ट गार्ड और दो कुली मिलकर लकडी का एक विशाल बक्सा घर ले आये। घर के अंदर चारों ओर दीवारों और कमरों से घिरा एक खुला आँगन था, वहीं बक्सा रखा गया। मैंने देखा, पेंगोलिन को उसमें किसी तरह ठूंसकर भरा हुआ था। ऊपर से तार की जाली बांधी थी। उसे खोलने के लिए पास जाते हुए वे डर रहे थे। आखिर आदित्य ने रस्सियाँ खोलीं। जाली हटाई। थोडी देर में पेंगोलिन जनाब बाहर आए।
यह प्राणी देखने में भयानक था। सात-आठ फूट लम्बा, पूरी देह उबड-खाबड, मगरमच्छ की तरह कड़ी पीठ। ताकतवर

मैं नाशिक में डिविजनल कमिशनर थी, तब हमारे घर में एक मेहमान आ धमका। या कहो कि मैंने ही अपने गले बाँध लिया। बडा विचित्र था वह मेहमान।
तब मेरे घर में भी बड़ी भागदौड चल रही थी। मेरा तबादला पुणे हो चुका था और मुझे वहां हाजिर होना था। बड़े लडके आदित्य की परीक्षाएँ चल रही थीं, इसलिए उसे अभी डेढ-दो महीने वहीं रूकना था। नए आयुक्त अस्थाना के साथ तय हुआ था कि आदित्य परीक्षा होने तक उनके साथ उसी घर में रहेगा। लेकिन उनके आने में अभी कुछ दिन बाकी थे। उतने दिन आदित्य को अकेला रहना। मुझे अपना सामान बंधवाकर, उसे पुणे भेजना था। अगले हफ्ते मेरी पुणे जाने की तारीख भी पक्की हो गई थी।
ऐसे में एक दिन सुबह सुबह खबर पढीं लिखा था, बगल के मालगांव शहर में एक आदमी को एक विचित्र प्राणी रास्ते पर धीरे धीरे चलता हुआ दीखा। वह आकार में नेवले जैसा, लेकिन काफी बडा था। शायद पास के जंगल में भटककर आया हो। कोई वाहन उसे कुचल न दे इसलिए उस आदमी ने इसे उठाकर पुलिस-चौकी में जमा कर दिया। अब एक ओर फॉरेस्ट अफसर परेशान है कि इसे कहाँ, कैसे भेजूँ, और दूसरी ओर पुलिस सिर थाम कर बैठी है कि तब तक इसका क्या करें?
मेरा पशु-पक्षी-प्रेम जागा। मैंने फॉरेस्ट कन्जर्वेटर को फोन किया- पूछा 'क्या प्लान है'।
वहाँ शेख नामक अफसर था। उसने कहा- उस प्राणी को शाम तक नाशिक ला पायेंगे। वह बहुत बड़ा है, सो लकडी का दस फुट लम्बा, चार फूट चौड़ा बक्सा बनाने के लिए कह दिया है।
ठीक है। लेकिन नाशिक में लाकर उसे रखेंगे कहाँ?
उसने कहा- 'बक्सा आँफिस में पड़ा रहेगा। वह प्राणी बक्से के अन्दर रहेगा।'
मैंने सुझाया- उसे मेरे घर ले आओ। घर बहुत बडा है। स्टोर रूम खाली हो चुका है। वहीं रहेगा। आठ दस दिन में तुम कोई अच्छा प्लान बनाना, फिर ले जाना।
शेख ने भी थोड़ी चैन की सांस ली। इस प्रकार तय हुआ कि शाम तक हमारे घर में वह मेहमान आ जाएगा।
अखबार मे उस प्राणी की तस्वीर छपी थी। उससे अनुमान लग रहा था कि यह पेंगोलिन नामक प्राणी है। आदित्य ने फटाफट इंटरनेट से जानकारी ली- वह क्या खाता है, कैसी आदतें रखता है। उसे कैसे संभाला जाय वगैरह। थोड़ा बहुत इनसाइक्लोपीडिया से भी पढा।
दोपहर को शेख भी मुझसे मिल लिए। उसे थोडा संकोच था कि कमिश्नर के घर में एक जंगली प्राणी को कैसे रखें। मैंने आश्र्वस्त किया कि मुझे और आदित्य को अनुभव है- शेर, मोर इत्यादि का। फिर घर और आंगन भी बहुत बडे हैं। आठ-दस दिन की बात है।
शाम को एक जीप में चार फॉरेस्ट गार्ड और दो कुली मिलकर लकडी का एक विशाल बक्सा घर ले आये। घर के अंदर चारों ओर दीवारों और कमरों से घिरा एक खुला आँगन था, वहीं बक्सा रखा गया। मैंने देखा, पेंगोलिन को उसमें किसी तरह ठूंसकर भरा हुआ था। ऊपर से तार की जाली बांधी थी। उसे खोलने के लिए पास जाते हुए वे डर रहे थे। आखिर आदित्य ने रस्सियाँ खोलीं। जाली हटाई। थोडी देर में पेंगोलिन जनाब बाहर आए।
यह प्राणी देखने में भयानक था। सात-आठ फूट लम्बा, पूरी देह उबड-खाबड, मगरमच्छ की तरह कड़ी पीठ। ताकतवर मोटी पूंछ- यदि वह मार दे तो जोरदार थप्पड़ लगे। लेकिन आदित्य ने पढा था कि यह प्राणी किसी को सताता नही है, न पूंछ मारता है, न काट खाता है। आदित्य उसके पास गया तो उसने तुरन्त अपने शरीर को गोल जलेबी की तरह मोड लिया और मुँह अंदर छिपाकर सुरक्षित कर लिया। उसकी गांठ किसी आदमी के खोलने से नही खुल सकती थी। आदित्य ने उसे उठा लिया। बड़ा भारी था। मैने उठाया तो मेरी सांस फूलने लगी। लेकिन समझ में आ गया कि चलो, इसे इधर से उधर तो कर सकते हैं।
इतना होने के बाद भी फॉरेस्ट कर्मचारी और हमारे घर के नौकर अभी भी उसके पास जाने में डर रहे थे। खैर, सर्दियों के दिन थे इसलिए हमने जवार का एक ट्रक भर पुआल भी मंगवा कर रख लिया। वह आंगन में पडा था। पेंगोलिन उसके अंदर घुस गया। हम अपने काम में लग गए।
उस रात पेंगोलिन ने बड़ा तंग किया। पहली बात, उसने कुछ भी खाने से इन्कार कर दिया। न दूध, न भात, न मांस, हाँ- बीच बीच में पानी पी लेता- जीभ से लपक लपक चाटकर।
आंगन के चारों ओर दीवारें या हमारे कमरे थे। पेंगोलिन दीवार पर चढ गया। इसके लिए वह अपने अगले दो पांव और पूंछ का सहारा लेता था। चार पांच फूट चढा और गिर गया- धप्प से। लेकिन कड़ी पीठ के कारण उसे कोई चोट नही आई। यह हम लोगों ने जांच कर तसल्ली की।
अब वह बार बार दीवार चढता और छह-सात फुट तक चढकर गिर जाता। बीच बीच में पुआल के ढेर में घुसता और अपनी पूंछ पटकपटक कर उसे तितर बितर कर देता। जवार का पुआल घास फूस की तरह नही होता, बल्कि दस बारह फुट लम्बी, मोटी डण्ठलें होती हैं। एक अच्छा भला आदमी भी एक बार में सात-आठ डण्ठलों का ही बोझ उठा सकता है। लेकिन पेंगोलिन उससे खिलौने की तरह खेल रहा था।
अचानक वह दीवार पर बारह फुट उंचाई तक पहुँच गया। वहाँ दीवार से बाहर निकलती हुई छत थी, जिसपर छिपकली की तरह उलटा नही जा सकता था। लेकिन वह छत के किनारे पर अपनी पूंछ टिकाने का प्रयास कर रहा था ताकि वहाँ से ऊपर खपरैलों पर जा सके। हमें डर लगा कि यह गिरकर चोट खा सकता है। इसलिए एक ऊंचे स्टूल पर चढ़ कर आदित्य ने उसे दीवार से खींचकर अलग किया। अब वह जलेबी नही बना था, वरन्‌ अपनी पूरी लम्बाई में था। उसे संभालना मुश्किल हो रहा था। उसे थामे रखो तो आदित्य के खुद के गिरने का डर और छोड दिया तो उसे चोट लगने का डर। ऐसे में मेरे नौकर सय्यद ने झट आगे बढ कर उसे लपक लिया। इसके बाद उन सभी के मन से पेंगोलिन का डर निकल गया।
हमने देखा कि उसकी शरारतें और निकल भागने का प्रयास थम नही रहा था। आखिर देर रात गए हमने उसे स्टोर रूम में ढेर सारी खाली बोरियों के साथ बंद कर दिया।
सुबह कमरा खोला तो ये आराम से देह पर आठ दस बोरियाँ ओढे सो रहा था। वह ठण्ड के कारण बोरियों में घुसा या हमेशा कहीं न कहीं मुँह छिपाने की अपनी आदत के कारण, कहना मुश्किल है।
दूसरे दिन फिर समस्या खड़ी हुई कि इसे खाने के लिए क्या दें। फल, सब्जी के टुकड़े, रोटी, दूध उसने कुछ नही छुआ। हां चार पांच अंडों का पीला बल्लक उसने खा लिया। फिर मुँह फेर लिया। हमने पढा था कि पेंगोलिन को चींटी या दीमक खाना पसंद है। उसे जमीन में गड्ढा खोदकर उसमें घुसे रहना भी पसंद था। इसलिए उसे बाहर के आंगन में वहाँ ले आए जहाँ कई चीटींयाँ, दीमक थे। उसके लिए आदित्य बाग से कई केंचुए भी ढूँढ लाया। फिर भी कुछ नही। वह कम्पाउंड वॉल चढकर जाने लगा तो उसे वहाँ से बार बार उतारना पडा। फिर वह एक पेड के नीचे गड्ढा खोदकर उसमें बैठ गया। उस पर हमें पहरा रखना पडा कि कहीं अचानक उठकर फिर कम्पाउंड वॉल न चढने लगे। जब भी उसे वहाँ से बाहर निकालकर घर के अन्दर लाना होता तो किसी भी बात का लालच देकर उसे निकालना संभव नही था। हर बार आदित्य को गड्ढे में उतरकर उसे उठा लाना पडता था।
शाम को हमने सोचा, इसे घुमाने ले चलें। हमें टोटो और दूसरे कुत्तो के कारण आदत थी कि घर में कोई प्राणी हो तो उसे थोड़ा सा घूमने दिया जाय। ऐसे समय उसे रस्सी वगैरह से बांधने का कभी विचार ही नही आया। उसे हमारे बंगले के नजदीक गोल्फ क्लब ग्राउंड में घूमने ले गए। वह बहुत धीरे धीरे चलता था। पार्क में जाने पर भी हमें ध्यान रखना पडा कि कहीं वह ऐसी जगह न घुस जाए जहाँ से उसे बाहर निकालना मुश्किल हो। ऐसे समय आदित्य उसे गोद में उठा लेता।
लेकिन गोल्फ क्लब में उसे घूमते हुए देखने वाले प्रायः सभी लोग उसकी लम्बाई और उबड़ खाबड़ पीठ से प्रभावित थे और आपस में अंदाज लगाते रहे कि वह कितना भयानक है। लोगों कि कल्पना की उडान कहाँ कहाँ तक पहुँची यह भी बडा
मनोरंजक था। हमने सोचा, अच्छा है, लोग उससे डरेंगे तो कोई उसे नहीं छेड़ेगा। यों उसे एक-डेढ घंटे पार्क में घुमाने का भी सिलसिला बना।
दूसरे दिन मैं पुणे के लिए रवाना हो गई। घर में रहे पेंगोलिन, आदित्य, एक दो चपरासी- बस!
पांच छः दिनों बाद मुझे एक दिन की छुट्टी मिली तो मैं नाशिक आई तो आदित्य ने तीन मजेदार बातें बताईं। पहली कि नाशिक के दो अखबारों ने पेंगोलिन पर लेख, उसके साथ आदित्य के फोटो इत्यादि छापे थे। स्कूल, कॉलेजों के कई बच्चे पेंगोलिन को देखने आ रहे थे और आदित्य भी मजे ले - लेकर उन्हें पेंगोलिन की दोस्ती के गुर सिखा रहा था। तीसरी यह कि किस तरह रात को एक बजे से पहले स्टोर रूम में बंद करने पर वह दरवाजे पर पूंछ पटक पटक कर शोर मचाता था। और उसे बाहर निकालना पडता था। दो बजे के बाद वह सो जाता और दूसरे दिन दस-गयारह बजे उठता। फिर जवार की डण्ठलों में उसकी उठा पटक देखो और पूरी नजर रखो कि वह दीवार पर चढकर इधर उधर भाग तो नही रहा।
इस बीच आदित्यच का एक पेपर भी हो चुका था। पेपर की तैयारी की जगह दो बजे तक वह पेंगोलिन की शरारतें झेलता संभालता रहा। फिर भी उसका पेपर अच्छा हुआ था। उधर पेंगोलिन खुद दिन के बारह बजे तक सोता रहा था।
खैर, मैं पहुँची। पेंगोलिन के लिए हमारे घर का आखरी दिन था क्योंकि दूसरे दिन से अस्थाना और उनका परिवार वहाँ रहने के लिए आने वाले थे। पेंगोलिन को पुणे के हमारे घर में ले जाना या किसी चिडियाघर में रखने की बात जँची नही। उसके लिए जंगल ही ठीक था। सो शेख अपने फॉरेस्ट गार्डस्‌ के साथ आए और उसे ले गए। नाशिक के पास इगतपुरी में अच्छा खासा जंगल है, वहाँ छोडने के लिए।
लेकिन हमारे देश के फॉरेस्ट गार्डस्‌ को अभी अन कामों में प्रशिक्षित करना आवश्यक है कि जंगल में वन्य पशुओं के आने जाने, खाने पीने जैसे व्यवहार पर कैसे नजर रखा जाए।
बाद में कई बार मैंने नाशिक के फॉरेस्ट अफसरों से अपने पेंगोलिन का हाल-चाल पूछा, पर किसी को पता नही कि वह कहाँ है, कैसे है।