०७--कौवों की सामाजिक भावना
पक्षियों में यदि दिलचस्पी बढ़ जाए तो उनकी कई मजेदार बातें समझ सकते हो। अक्सर ऐसा होता है कि कई 'कौवे-कांव' करने लगते हैं। यदि देर तक ऐसा हो तो समझो जरूर कुछ खास हो रहा है।
एक दिन सुबह मैं घूमने निकली तो एक कौवे का शोर सुना। मैंने देखा कि बिजली की तीन तारों के बीच एक कौवे का पंख बुरी तरह फँसा हुआ है। दोनों पांव पास की एक तार पर टिके हुए थे। वह उड नही सकता था। उसकी बगल में बैठा कौवा शोर मचा रहा था- 'कांव-कांव'....... यानी सब आओ, जल्दी जल्दी आओ।
देखते-देखते कौवे जमा हो गए। करीब पचास-साठ ! सारे चीख रहे थे- उन चीखों में हताशा, दुख, मदद की गुहार, सबकुछ सुना जा सकता था। फिर मैंने देखी उनकी होशियारी। कुछ कौवे अपनी जगह से उडते और एक चक्कर लगाकर वापस धप्प से तार पर बैठ जाते। बिल्कुल एक साथ तो नही- फिर भी उनके वेग से बैठने के कारण तारें हिलतीं और देर तक हिचकोले खातीं। कई बार ऐसा करने पर एकाध बार उन दो तारों में थोडा अलगाव आ जाता जिनके बीच पंख फँसा हुआ था। ऐसा कई बार हुआ। सौ, दो सौ बार या शायद उससे भी ज्यादा। क्योंकि मैं वहाँ करीब बीस मिनट खडी थी।
धीरे-धीरे, थोडा थोडा करके फंसा हुआ पंख तारों से बाहर आया और वह कौवा उड़ गया तो मुझे लगा जैसे मेरी ही साँस वापस आ गई। फिर एक-एक करके बाकी कौवे उड़ने लगे। शायद हर कौवा चले जाने से पहले अपनी तसल्ली कर रहा था कि काम हो गया है। 'कांव-कांव' जारी था। जो कौवे अभी तक आश्र्वस्त नही थे, वे अब भी अपने साथियों को मदद के लिए बुला रहे थे। लेकिन बाद में सबकी तसल्ली हुई और अंततः में सारे कौवे चले गए।
बची मैं ! हठात् याद आया, मेरे एक परिचित अफसर का किस्सा जिनका मुंबई-पुणे रोड पर कार एक्सीडेंट हुआ तो करीब आधे घंटे तक किसी ने गाड़ी रोककर उनकी सहायता नहीं की। बाद में जब सहायता मिली और सबको अस्पताल ले जाया गया तो उनकी सास और ड्राइवर मर चुके थे। डॉक्टरों ने कहा- टू लेट- काफी रक्त बह गया है- इन्हें जल्दी लाते तो ये बच सकते थे।
क्या हम लोग भी कई बार संकट में फंसे व्यक्ति को अनदेखा करते हुए आगे नही निकल जाते?
Wednesday, August 8, 2007
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