१४-- एक मेहमान अचानक
मैं नाशिक में डिविजनल कमिशनर थी, तब हमारे घर में एक मेहमान आ धमका। या कहो कि मैंने ही अपने गले बाँध लिया। बडा विचित्र था वह मेहमान।
तब मेरे घर में भी बड़ी भागदौड चल रही थी। मेरा तबादला पुणे हो चुका था और मुझे वहां हाजिर होना था। बड़े लडके आदित्य की परीक्षाएँ चल रही थीं, इसलिए उसे अभी डेढ-दो महीने वहीं रूकना था। नए आयुक्त अस्थाना के साथ तय हुआ था कि आदित्य परीक्षा होने तक उनके साथ उसी घर में रहेगा। लेकिन उनके आने में अभी कुछ दिन बाकी थे। उतने दिन आदित्य को अकेला रहना। मुझे अपना सामान बंधवाकर, उसे पुणे भेजना था। अगले हफ्ते मेरी पुणे जाने की तारीख भी पक्की हो गई थी।
ऐसे में एक दिन सुबह सुबह खबर पढीं लिखा था, बगल के मालगांव शहर में एक आदमी को एक विचित्र प्राणी रास्ते पर धीरे धीरे चलता हुआ दीखा। वह आकार में नेवले जैसा, लेकिन काफी बडा था। शायद पास के जंगल में भटककर आया हो। कोई वाहन उसे कुचल न दे इसलिए उस आदमी ने इसे उठाकर पुलिस-चौकी में जमा कर दिया। अब एक ओर फॉरेस्ट अफसर परेशान है कि इसे कहाँ, कैसे भेजूँ, और दूसरी ओर पुलिस सिर थाम कर बैठी है कि तब तक इसका क्या करें?
मेरा पशु-पक्षी-प्रेम जागा। मैंने फॉरेस्ट कन्जर्वेटर को फोन किया- पूछा 'क्या प्लान है'।
वहाँ शेख नामक अफसर था। उसने कहा- उस प्राणी को शाम तक नाशिक ला पायेंगे। वह बहुत बड़ा है, सो लकडी का दस फुट लम्बा, चार फूट चौड़ा बक्सा बनाने के लिए कह दिया है।
ठीक है। लेकिन नाशिक में लाकर उसे रखेंगे कहाँ?
उसने कहा- 'बक्सा आँफिस में पड़ा रहेगा। वह प्राणी बक्से के अन्दर रहेगा।'
मैंने सुझाया- उसे मेरे घर ले आओ। घर बहुत बडा है। स्टोर रूम खाली हो चुका है। वहीं रहेगा। आठ दस दिन में तुम कोई अच्छा प्लान बनाना, फिर ले जाना।
शेख ने भी थोड़ी चैन की सांस ली। इस प्रकार तय हुआ कि शाम तक हमारे घर में वह मेहमान आ जाएगा।
अखबार मे उस प्राणी की तस्वीर छपी थी। उससे अनुमान लग रहा था कि यह पेंगोलिन नामक प्राणी है। आदित्य ने फटाफट इंटरनेट से जानकारी ली- वह क्या खाता है, कैसी आदतें रखता है। उसे कैसे संभाला जाय वगैरह। थोड़ा बहुत इनसाइक्लोपीडिया से भी पढा।
दोपहर को शेख भी मुझसे मिल लिए। उसे थोडा संकोच था कि कमिश्नर के घर में एक जंगली प्राणी को कैसे रखें। मैंने आश्र्वस्त किया कि मुझे और आदित्य को अनुभव है- शेर, मोर इत्यादि का। फिर घर और आंगन भी बहुत बडे हैं। आठ-दस दिन की बात है।
शाम को एक जीप में चार फॉरेस्ट गार्ड और दो कुली मिलकर लकडी का एक विशाल बक्सा घर ले आये। घर के अंदर चारों ओर दीवारों और कमरों से घिरा एक खुला आँगन था, वहीं बक्सा रखा गया। मैंने देखा, पेंगोलिन को उसमें किसी तरह ठूंसकर भरा हुआ था। ऊपर से तार की जाली बांधी थी। उसे खोलने के लिए पास जाते हुए वे डर रहे थे। आखिर आदित्य ने रस्सियाँ खोलीं। जाली हटाई। थोडी देर में पेंगोलिन जनाब बाहर आए।
यह प्राणी देखने में भयानक था। सात-आठ फूट लम्बा, पूरी देह उबड-खाबड, मगरमच्छ की तरह कड़ी पीठ। ताकतवर
मैं नाशिक में डिविजनल कमिशनर थी, तब हमारे घर में एक मेहमान आ धमका। या कहो कि मैंने ही अपने गले बाँध लिया। बडा विचित्र था वह मेहमान।
तब मेरे घर में भी बड़ी भागदौड चल रही थी। मेरा तबादला पुणे हो चुका था और मुझे वहां हाजिर होना था। बड़े लडके आदित्य की परीक्षाएँ चल रही थीं, इसलिए उसे अभी डेढ-दो महीने वहीं रूकना था। नए आयुक्त अस्थाना के साथ तय हुआ था कि आदित्य परीक्षा होने तक उनके साथ उसी घर में रहेगा। लेकिन उनके आने में अभी कुछ दिन बाकी थे। उतने दिन आदित्य को अकेला रहना। मुझे अपना सामान बंधवाकर, उसे पुणे भेजना था। अगले हफ्ते मेरी पुणे जाने की तारीख भी पक्की हो गई थी।
ऐसे में एक दिन सुबह सुबह खबर पढीं लिखा था, बगल के मालगांव शहर में एक आदमी को एक विचित्र प्राणी रास्ते पर धीरे धीरे चलता हुआ दीखा। वह आकार में नेवले जैसा, लेकिन काफी बडा था। शायद पास के जंगल में भटककर आया हो। कोई वाहन उसे कुचल न दे इसलिए उस आदमी ने इसे उठाकर पुलिस-चौकी में जमा कर दिया। अब एक ओर फॉरेस्ट अफसर परेशान है कि इसे कहाँ, कैसे भेजूँ, और दूसरी ओर पुलिस सिर थाम कर बैठी है कि तब तक इसका क्या करें?
मेरा पशु-पक्षी-प्रेम जागा। मैंने फॉरेस्ट कन्जर्वेटर को फोन किया- पूछा 'क्या प्लान है'।
वहाँ शेख नामक अफसर था। उसने कहा- उस प्राणी को शाम तक नाशिक ला पायेंगे। वह बहुत बड़ा है, सो लकडी का दस फुट लम्बा, चार फूट चौड़ा बक्सा बनाने के लिए कह दिया है।
ठीक है। लेकिन नाशिक में लाकर उसे रखेंगे कहाँ?
उसने कहा- 'बक्सा आँफिस में पड़ा रहेगा। वह प्राणी बक्से के अन्दर रहेगा।'
मैंने सुझाया- उसे मेरे घर ले आओ। घर बहुत बडा है। स्टोर रूम खाली हो चुका है। वहीं रहेगा। आठ दस दिन में तुम कोई अच्छा प्लान बनाना, फिर ले जाना।
शेख ने भी थोड़ी चैन की सांस ली। इस प्रकार तय हुआ कि शाम तक हमारे घर में वह मेहमान आ जाएगा।
अखबार मे उस प्राणी की तस्वीर छपी थी। उससे अनुमान लग रहा था कि यह पेंगोलिन नामक प्राणी है। आदित्य ने फटाफट इंटरनेट से जानकारी ली- वह क्या खाता है, कैसी आदतें रखता है। उसे कैसे संभाला जाय वगैरह। थोड़ा बहुत इनसाइक्लोपीडिया से भी पढा।
दोपहर को शेख भी मुझसे मिल लिए। उसे थोडा संकोच था कि कमिश्नर के घर में एक जंगली प्राणी को कैसे रखें। मैंने आश्र्वस्त किया कि मुझे और आदित्य को अनुभव है- शेर, मोर इत्यादि का। फिर घर और आंगन भी बहुत बडे हैं। आठ-दस दिन की बात है।
शाम को एक जीप में चार फॉरेस्ट गार्ड और दो कुली मिलकर लकडी का एक विशाल बक्सा घर ले आये। घर के अंदर चारों ओर दीवारों और कमरों से घिरा एक खुला आँगन था, वहीं बक्सा रखा गया। मैंने देखा, पेंगोलिन को उसमें किसी तरह ठूंसकर भरा हुआ था। ऊपर से तार की जाली बांधी थी। उसे खोलने के लिए पास जाते हुए वे डर रहे थे। आखिर आदित्य ने रस्सियाँ खोलीं। जाली हटाई। थोडी देर में पेंगोलिन जनाब बाहर आए।
यह प्राणी देखने में भयानक था। सात-आठ फूट लम्बा, पूरी देह उबड-खाबड, मगरमच्छ की तरह कड़ी पीठ। ताकतवर मोटी पूंछ- यदि वह मार दे तो जोरदार थप्पड़ लगे। लेकिन आदित्य ने पढा था कि यह प्राणी किसी को सताता नही है, न पूंछ मारता है, न काट खाता है। आदित्य उसके पास गया तो उसने तुरन्त अपने शरीर को गोल जलेबी की तरह मोड लिया और मुँह अंदर छिपाकर सुरक्षित कर लिया। उसकी गांठ किसी आदमी के खोलने से नही खुल सकती थी। आदित्य ने उसे उठा लिया। बड़ा भारी था। मैने उठाया तो मेरी सांस फूलने लगी। लेकिन समझ में आ गया कि चलो, इसे इधर से उधर तो कर सकते हैं।
इतना होने के बाद भी फॉरेस्ट कर्मचारी और हमारे घर के नौकर अभी भी उसके पास जाने में डर रहे थे। खैर, सर्दियों के दिन थे इसलिए हमने जवार का एक ट्रक भर पुआल भी मंगवा कर रख लिया। वह आंगन में पडा था। पेंगोलिन उसके अंदर घुस गया। हम अपने काम में लग गए।
उस रात पेंगोलिन ने बड़ा तंग किया। पहली बात, उसने कुछ भी खाने से इन्कार कर दिया। न दूध, न भात, न मांस, हाँ- बीच बीच में पानी पी लेता- जीभ से लपक लपक चाटकर।
आंगन के चारों ओर दीवारें या हमारे कमरे थे। पेंगोलिन दीवार पर चढ गया। इसके लिए वह अपने अगले दो पांव और पूंछ का सहारा लेता था। चार पांच फूट चढा और गिर गया- धप्प से। लेकिन कड़ी पीठ के कारण उसे कोई चोट नही आई। यह हम लोगों ने जांच कर तसल्ली की।
अब वह बार बार दीवार चढता और छह-सात फुट तक चढकर गिर जाता। बीच बीच में पुआल के ढेर में घुसता और अपनी पूंछ पटकपटक कर उसे तितर बितर कर देता। जवार का पुआल घास फूस की तरह नही होता, बल्कि दस बारह फुट लम्बी, मोटी डण्ठलें होती हैं। एक अच्छा भला आदमी भी एक बार में सात-आठ डण्ठलों का ही बोझ उठा सकता है। लेकिन पेंगोलिन उससे खिलौने की तरह खेल रहा था।
अचानक वह दीवार पर बारह फुट उंचाई तक पहुँच गया। वहाँ दीवार से बाहर निकलती हुई छत थी, जिसपर छिपकली की तरह उलटा नही जा सकता था। लेकिन वह छत के किनारे पर अपनी पूंछ टिकाने का प्रयास कर रहा था ताकि वहाँ से ऊपर खपरैलों पर जा सके। हमें डर लगा कि यह गिरकर चोट खा सकता है। इसलिए एक ऊंचे स्टूल पर चढ़ कर आदित्य ने उसे दीवार से खींचकर अलग किया। अब वह जलेबी नही बना था, वरन् अपनी पूरी लम्बाई में था। उसे संभालना मुश्किल हो रहा था। उसे थामे रखो तो आदित्य के खुद के गिरने का डर और छोड दिया तो उसे चोट लगने का डर। ऐसे में मेरे नौकर सय्यद ने झट आगे बढ कर उसे लपक लिया। इसके बाद उन सभी के मन से पेंगोलिन का डर निकल गया।
हमने देखा कि उसकी शरारतें और निकल भागने का प्रयास थम नही रहा था। आखिर देर रात गए हमने उसे स्टोर रूम में ढेर सारी खाली बोरियों के साथ बंद कर दिया।
सुबह कमरा खोला तो ये आराम से देह पर आठ दस बोरियाँ ओढे सो रहा था। वह ठण्ड के कारण बोरियों में घुसा या हमेशा कहीं न कहीं मुँह छिपाने की अपनी आदत के कारण, कहना मुश्किल है।
दूसरे दिन फिर समस्या खड़ी हुई कि इसे खाने के लिए क्या दें। फल, सब्जी के टुकड़े, रोटी, दूध उसने कुछ नही छुआ। हां चार पांच अंडों का पीला बल्लक उसने खा लिया। फिर मुँह फेर लिया। हमने पढा था कि पेंगोलिन को चींटी या दीमक खाना पसंद है। उसे जमीन में गड्ढा खोदकर उसमें घुसे रहना भी पसंद था। इसलिए उसे बाहर के आंगन में वहाँ ले आए जहाँ कई चीटींयाँ, दीमक थे। उसके लिए आदित्य बाग से कई केंचुए भी ढूँढ लाया। फिर भी कुछ नही। वह कम्पाउंड वॉल चढकर जाने लगा तो उसे वहाँ से बार बार उतारना पडा। फिर वह एक पेड के नीचे गड्ढा खोदकर उसमें बैठ गया। उस पर हमें पहरा रखना पडा कि कहीं अचानक उठकर फिर कम्पाउंड वॉल न चढने लगे। जब भी उसे वहाँ से बाहर निकालकर घर के अन्दर लाना होता तो किसी भी बात का लालच देकर उसे निकालना संभव नही था। हर बार आदित्य को गड्ढे में उतरकर उसे उठा लाना पडता था।
शाम को हमने सोचा, इसे घुमाने ले चलें। हमें टोटो और दूसरे कुत्तो के कारण आदत थी कि घर में कोई प्राणी हो तो उसे थोड़ा सा घूमने दिया जाय। ऐसे समय उसे रस्सी वगैरह से बांधने का कभी विचार ही नही आया। उसे हमारे बंगले के नजदीक गोल्फ क्लब ग्राउंड में घूमने ले गए। वह बहुत धीरे धीरे चलता था। पार्क में जाने पर भी हमें ध्यान रखना पडा कि कहीं वह ऐसी जगह न घुस जाए जहाँ से उसे बाहर निकालना मुश्किल हो। ऐसे समय आदित्य उसे गोद में उठा लेता।
लेकिन गोल्फ क्लब में उसे घूमते हुए देखने वाले प्रायः सभी लोग उसकी लम्बाई और उबड़ खाबड़ पीठ से प्रभावित थे और आपस में अंदाज लगाते रहे कि वह कितना भयानक है। लोगों कि कल्पना की उडान कहाँ कहाँ तक पहुँची यह भी बडा
मनोरंजक था। हमने सोचा, अच्छा है, लोग उससे डरेंगे तो कोई उसे नहीं छेड़ेगा। यों उसे एक-डेढ घंटे पार्क में घुमाने का भी सिलसिला बना।
दूसरे दिन मैं पुणे के लिए रवाना हो गई। घर में रहे पेंगोलिन, आदित्य, एक दो चपरासी- बस!
पांच छः दिनों बाद मुझे एक दिन की छुट्टी मिली तो मैं नाशिक आई तो आदित्य ने तीन मजेदार बातें बताईं। पहली कि नाशिक के दो अखबारों ने पेंगोलिन पर लेख, उसके साथ आदित्य के फोटो इत्यादि छापे थे। स्कूल, कॉलेजों के कई बच्चे पेंगोलिन को देखने आ रहे थे और आदित्य भी मजे ले - लेकर उन्हें पेंगोलिन की दोस्ती के गुर सिखा रहा था। तीसरी यह कि किस तरह रात को एक बजे से पहले स्टोर रूम में बंद करने पर वह दरवाजे पर पूंछ पटक पटक कर शोर मचाता था। और उसे बाहर निकालना पडता था। दो बजे के बाद वह सो जाता और दूसरे दिन दस-गयारह बजे उठता। फिर जवार की डण्ठलों में उसकी उठा पटक देखो और पूरी नजर रखो कि वह दीवार पर चढकर इधर उधर भाग तो नही रहा।
इस बीच आदित्यच का एक पेपर भी हो चुका था। पेपर की तैयारी की जगह दो बजे तक वह पेंगोलिन की शरारतें झेलता संभालता रहा। फिर भी उसका पेपर अच्छा हुआ था। उधर पेंगोलिन खुद दिन के बारह बजे तक सोता रहा था।
खैर, मैं पहुँची। पेंगोलिन के लिए हमारे घर का आखरी दिन था क्योंकि दूसरे दिन से अस्थाना और उनका परिवार वहाँ रहने के लिए आने वाले थे। पेंगोलिन को पुणे के हमारे घर में ले जाना या किसी चिडियाघर में रखने की बात जँची नही। उसके लिए जंगल ही ठीक था। सो शेख अपने फॉरेस्ट गार्डस् के साथ आए और उसे ले गए। नाशिक के पास इगतपुरी में अच्छा खासा जंगल है, वहाँ छोडने के लिए।
लेकिन हमारे देश के फॉरेस्ट गार्डस् को अभी अन कामों में प्रशिक्षित करना आवश्यक है कि जंगल में वन्य पशुओं के आने जाने, खाने पीने जैसे व्यवहार पर कैसे नजर रखा जाए।
बाद में कई बार मैंने नाशिक के फॉरेस्ट अफसरों से अपने पेंगोलिन का हाल-चाल पूछा, पर किसी को पता नही कि वह कहाँ है, कैसे है।
Wednesday, August 8, 2007
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