Wednesday, August 8, 2007

०५--गरूड़ का बचाव

०५--गरूड़ का बचाव

आजकल मैं अपने घर के आंगन में हमेशा मिट्टी के तसले में पानी भरकर रखती हूँ- पंछियों के पीने के लिए। पहले मैं सोचती थी कि उन्हें केवल गरमी में इसकी जरूरत पडती होगी, लेकिन अब पता चल गया कि दिल्ली की कडाके की सर्दी में भी वे पानी पीने आ जाते हैं। कौवे, चिडियाँ, मैना और कबूतर तो रोज ही। कभी कभी चील, तोते, जंगली चिडियाँ और बुलबुल भी। गर्मी में एकाध बार हुप्‌-हुप्‌ और खंडया (किंग फिशर) को भी देखा है। लेकिन एक दिन मेरे आनंद का ठिकाना न रहा, जब मैंने देखा कि एक छोटा सा गरूड भी आ गया था पानी पीने। उसके मुलायम रोंए थे, जिनसे पता चलता था कि अभी बच्चा है।
इसके कुछ ही दिन बाद मैंने सुबह सुबह कौवों का शोर सुना। कई सारे कौवे। बापूधाम की मल्टीस्टोरीड बिल्डिंग के ऊपर छत पर जमा हो रहे थे। मैं बापूधाम की दूसरी बिल्डिंग के अपने घर से देख रही थी।
अचानक मेरी नजर में आया कि वहाँ एक गरूड़ था, जो घायल है और उसी के लिए कौवे जमा हुए थे। शायद उसे चोंच मार मार कर मार देने के लिए। 'कांव कांव' चल रही थी। कौवों का झुण्ड बढ रहा था। कौवे तीन-चार, तीन-चार के गुट में गरूड के पास आते- मारने के लिए। लेकिन उसे बडे पंख और तीखी चोंच से डर कर फिर पीछे हट जाते। गरूड छोटा ही था। कहीं वह बच्चा तो नही, जो एक दिन मेरा मेहमान बन कर पानी पीने आया था?
मैंने अपने नौकर को पुकारा, साथ में एक बडी चादर भी ली। हम लोग मल्टी स्टोरी बिल्डिंग की ओर चले। वॉचमैन को भी ले लिया। लिफ्ट से छत पर और वहाँ से एक पतली सीढी से टंकी के ऊपर। हम लोग थोडा शोर भी मचा रहे थे। कौवे तो उड गए। गरूड़ ऐसी जगह बैठा था जहाँ हमारा पहुँचना मुश्किल था। यह जगह उसने इस प्रकार चुनी थी कि एक साथ तीन चार से ज्यादा कौवे उसके पास नही आ सकते थे- और वे भी केवल एक दिशा से। फिर उन्हें धमकाना गरूड के लिए आसान था। कुछ देर तक हम वहीं रूके रहे थे। हमारे कारण कौवों का आना रूक गया। हालाँकि दूर एक पेड पर बैठे वे अब भी शोर कर रहे थे।
थोडी देर में हमने देखा, वह गरूड बडी मस्ती से अपने पंख फैलाकर एक ताकत से उडा और हमारी आँखों से ओझल हो गया। उसकी गति का पीछा कर पाना कौवों के लिए संभव नही था। हमारी तरह उन्होंने भी मुँह बना दिया होगा। मैंने कहा- 'मूरख ! - तू पहले क्यों नही उड गया? लेकिन उत्तर देने के लिए कौन रूका था?'

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