Wednesday, August 8, 2007

११--सोनू : एक राजहंस

११--सोनू : एक राजहंस

पुणे में मेरी एक परिचित महिला हैं, जो व्यवसाय में आयुर्वेद की डाक्टर हैं, लेकिन ललाट लेख से कुछ और हैं। नाम है डॉ० शकुन्तला मांडके। उनके माथे पर मानो विधाता ने लिख दिया है कि यह पशु पक्षियों की सेवा करेगी। जब देखो, उनके घर में कोई-न-कोई बीमार पंछी या प्राणी अपना उपचार करवाता मिलता है। उनका दवाखाना है मनुष्यों के लिए और घर है बीमार पशु-पक्षियों के लिए।
एक बार वे अपनी कुतिया रेशमा को घुमाने ले जा रही थीं कि देखा, कूड़े के ढेर पर एक बड़ा जख्मी पंछी पड़ा है। उसके दोनों पैरों में नायलोन की मजबूत रस्सियाँ बँधी हुई थीं। पँखों पर जगह-जगह खून था। ऊँचे पेड़ों पर से कौवे बारी-बारी से उसे चोंच मारने आ रहे थे। कौवे चाहते थे कि पहले उसकी आँखों को नोंचें। एक बार वह अंधा हो जाए तो फिर अपने आपको बचा नहीं पाएगा।
डॉ० मांडके स्वयं एक पाँव से लँगड़ा कर चलती हैं। उन्होंने रेशमा की साँकल खोल दी और उस पंछी को बड़ी मेहनत से दोनों हाथों में उठा लिया। रेशमा से कहा- 'खबरदार, बिना शरारत किए, सीधे घर चलना।' और रेशमा भी, जो नटखट है और हमेशा उछल-कूद करती है, ऐसी सीधी हो गई मानो अब उसी पर भारी जिम्मेदारी आ गयी है। धीरे-धीरे चलते हुए सब घर आये। रास्ते में ही पंछी का नामकरण हो गया- 'सोनू'। डरे हुए पंछी को धीरज बंधाने के लिए उससे बात करना जरूरी है। इसलिए उसे तत्काल नाम देना भी जरूरी हो गया था।
घर आकर सोनू के पैरों की रस्सियाँ खोलने में ही दो घन्टे लग गए। वे काले-नीले पड़ चुके थे और उनकी ताकत खत्म हो चली थी। अगले दस पन्द्रह दिनों तक डा० माँडके को काफी मेहनत करनी पड़ी। हर तीन घंटे बाद पैरों में आयोडेक्स से मालिश करना, न्यूरोबिआन की गोलियाँ पीस कर दूध में मिला कर सोनू को खिलाना उसके नीचे बिछाए गए अखबार को बार-बार बदलना, उसकी विष्ठा को साफ करना, शरीर के जख्मों में दवाइयाँ लगाना, उसे नहलाना, पोंछना और उसमें घन्टों बातें करना। धीरे-धीरे वह ठीक हो गया। लेकिन पास-पड़ोस से आने वाली बिल्ली की आवाज से सोनू बहुत डरता था। इसीलिए रात में वह रेशमा के पेट पर गर्दन रख कर सोता था।
इस बीच डॉ० मॉडके ने खोज ही लिया कि किसने सोनू को घायल कर कूड़े में फेंक दिया था। वह भी अलग और लम्बी कहानी है। लेकिन पुराने मालिक ने बीमार सोनू को वापस लेने से इन्कार कर दिया था। अब अच्छा हो जाने के बाद उन्हें क्यों वापस दिया जाएँ ! कहीं-न-कहीं उन्हें भी अपनी दुष्टता का एहसास था। इसलिए वे लोग इस बात को बढ़ाना नहीं चाहते थे।
धीरे-धीरे सोनू के किस्से फैल गए। बच्चे उसे देखने आते। उसे सुन्दर सफेद पंख और राजसी चाल तो तब उजागर हुई, जब वह अच्छा हो गया। फिर पास-पड़ोस के बच्चों ने सलीम अली की पुस्तक से पक्षियों के बारे में पढ़ कर तय किया कि यह राजहंस है।
आज भी सोनू डॉ माँडके के घर का सदस्य है। उसे सोनू कह कर पुकारने पर वह आँ-ऊँ करके आवाज देता है। घड़ी दिखाओ, चूड़ी दिखाओ, बाल दिखाओ कहने पर डॉ माँडके की घड़ी, चूड़ी या चोटी को चोंच में पकड़कर दिखाता है। रेशमा की और उसकी अपनी कोई भाषा है, उसे यदि तुमने सुना तो तुम्हें गुर्र-गुर्र और आँऊँ-आँऊँ के सिवा कुछ समझ में नहीं आएगा।
सोनू बड़े मनोयोग से टब में डुबकियाँ लगा कर नहाता है। फिर अपने पंख सुखाता है। फिर अपने पीठ की एक छोटी-सी थैलीनुमा जगह में चोंच डाल कर वहाँ से तेल जैसा कुछ निकालता है और उससे सारे पंखों पर मालिश करता है। इससे वे चमकने लगते हैं। घर का दरवाजा खोलकर यदि डॉ० माँडके आँगन में गई तो वह भी पीछे-पीछे जाता है, लेकिन कभी भी उसने उड़ कर चले जाने की इच्छा नहीं जतायी।
अब तक दो चार अखबारों में सोनू के विषय में छप चुका है और चार बार उसकी वीडियो शूटिंग भी हो चुकी है। इसमें से एक तो जानी मानी फिल्म निर्देशक सई परांजये की संस्था ने की है। पुणे के कई पशु प्रेमी और पर्यावरण प्रेमी सोनू को देखने आए। पहले सब सोचते हैं कि सोनू को उड़ कर राजहंसों की टोली में मिल जाना चाहिए, लेकिन महाराष्ट्र में राजहंसों की टोली कहीं नही है। और सोनू भी जिस प्यार और आराम से डॉ० मांडके के घर में रहता है, शरारतें करता है, उसे देखने के बाद सबके विचार बदल जाते हैं। फिर सब मान लेते हैं कि सोनू वहीं रहे, जहाँ उसका दिल लग गया है।

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