Wednesday, August 8, 2007

१०-- मेरी रानी की कहानी

१०-- मेरी रानी की कहानी

यह घटना है सन्‌ १९८३ की। तब मेरी पोस्टिंग महाराष्ट्र के सांगली जिले में जिला परिषद् की प्रमुख कार्यकारी अधिकारी के पद पर हुई थी। महाराष्ट्र प्रशासन की दृष्टि से यह पोस्ट जिलाधिकारी के समकक्ष मानी जाती है, हालाँकि जिले में अलग से एक जिलाधिकारी भी होता है।

अंग्रेजों के काल में सांगली एक संस्थानिक राज्य हुआ करता था। अर्थात्‌ वहाँ एक राजा था और राजाओं के अपने शौक। अतः उन्होंने एक बड़ा सा चिड़ियाघर खोलकर उसमें कई पशु-पक्षी पाले थे। स्वतंत्रता के बाद राजपाट समाप्त हो गए और वह चिड़ियाघर भी सार्वजनिक हो गया। वहाँ सिंह और सिंहनियाँ भी थीं और जब उनके छोटे बच्चे पैदा होते, तो उन्हें सरकस के मालिकों के हाथ बेच दिया जाता था। इससे चिड़ियाघर को कुछ कमाई भी हो जाती थी।

क्या तुम जानते हो कि चिड़ियाघर का खर्च कैसे चलता है? शहर की नगरपालिका यह खर्चा चलाती है। प्रायः उनके पास पैसे कम होते हैं और चिड़ियाघरों की देखभाल ठीक से नहीं हो पाती। उधर सरकस के मालिक भी जानवर बच्चों को खरीदकर उन्हें तरह-तरह की कलाबाजियाँ सिखाने के लिए कई बार उनके साथ क्रूरता से पेश आते हैं। इसलिए सरकार बीच-बीच में नियम बनाती है कि छोटे जानवर बच्चे नहीं बेचे जाएँगे। कुछ समय बाद ये नियम फिर ढीले पड़ जाते हैं।

उन दिनों भी सरकार ने रोक लगाई थी कि सिंह, बाघ इत्यादि के छोटे बच्चे सरकस में नहीं बेचे जाएँगे। इधर सांगली नगरपालिका के पास पैसे नहीं थे कि जानवरों की ठीक से देखभाल हो। उसी समय चिड़ियाघर की एक सिंहनी ने तीन बच्चों का जन्म दिया। चिड़ियाघर के कर्मचारी खुश थे, लेकिन अधिकारी गण दुःखी हो गए। उन्हीं दिनों महाराष्ट्र के गवर्नर श्री लतीफ सांगली जिले के दौरे पर आए। शाम को उन्होंने सिंहनी के नए बच्चे देखने चाहे। बच्चों को टोकरियों में भरकर लागया गया। मैं और जिलाधिकारी गवर्नर का सारा इंतजाम देख रहे थे और अंदर उनसे बातें कर रहे थे। पर बाहर कुछ खुसर-पुसर हो रही थी। मै बाहर आयी। पूछा, तो नगरपालिका के कर्मचारी चिंता जता रहे थे कि आगे इन बच्चों के खर्चे की व्यवस्था कैसे होगी। झट मेरे दिमाग में कुछ बातें कौंध गयीं।

कुछ वर्ष पहले हम लोगों ने किस्से पढ़े थे कि धुले शहर के एक डॉक्टर पूर्णपात्रे अपने घर में सिंह और बाघ को पाला करते थे। उनकी एक सिंहनी सोनाली बड़ी मशहूर थी, जिसे बाद में उन्होंने पुणे के चिड़ियाघर में रखवा दिया था। मैं अपने परिवार के साथ, खासकर बच्चों के साथ उसे देखने कई बार जाया करती थी। जब डॉ. पूर्णपत्रे पुणे आते थे और सोनाली के
पिंजरे में जाकर उससे मिलते थे तो सोनाली भी उनके गले से लिपट कर तरह-तरह की आवाजें निकालती थीं। मानो उनसे हजार बातें कर रही हो। वह दृश्य देखनेवालों के दिल भर आते थे। हम लोगों ने भी यह दृश्य देखा था।

नगरपालिका की चिंता सुनकर मैंने सोचा, क्यों न मैं भी इन सिंह बच्चों को पाल लूँ ! नगरपालिका के खर्चे का बोझ कुछ कम हो जाएगा। किसी खास जानकारी की आवश्यकता हुई तो डॉ पूर्णपात्रे को चिट्ठी लिख दूँगी। नगरपालिका वालों ने 'हां' कर दी तो मैंने वन विभाग से अनुमति ली। फिर घर के लंबे-चौड़े बगीचे में एक बहुत बड़ा पिंजरा बनवाया। पिंजरे में सौ-सौ वर्ग फुट के दो खाने थे। बीच में इधर-से-उधर आने जाले के लिए दरवाजा था। दोनों पिंजरों से बाहर आने के लिए भी दरवाजे थे। ऊँचाई भी करीब १५ फट थी। वन विभाग की अनुमति और पिंजरे बनवाने में दो महीने बीत गए। फिर वह छोटी सिंहनी हमारे घर आयी, जिसे मैंने चुना था। हमने उसका नाम रखा 'रानी'। लेकिन अब रानी बड़ी होकर तीन माह की हो गई थी। उतनी अबोध नहीं थी, जितनी मैंने पहली बार देखी थी। मेरी अनुपस्थिति में उसे पिंजरे से बाहर नहीं रखा जा सकता था। पहले मैंने सोचा कि जब इसे पिंजरे में ही रखना पड़े तो फिर क्या चिड़ियाघर और क्या मेरा घर ! लेकिन चिड़ियाघर का उसका कमरा अँधेरा, सीलन-भरा और छोटा-सा था। हमने यही सोचकर उसे रख लिया कि यहाँ पिंजरा तो बड़ा है और खुला-खुला है।

पहले दिन उसने खूब ऊधम मचाया। वह पिंजरे की छड़ें पकड़ कर बंदर की तरह ऊपर तक चढ़ जाती और देखती कि वहाँ से कोई बाहर निकलने का रास्ता है या नहीं। फिर उसे खींचकर नीचे उतारना पड़ता था। इस बीच मैंने कई बार चिड़ियाघर जाकर उससे थोड़ी सी दोस्ती बनाई थी। वह थी बिल्ली के बच्चे की ही तरह, लेकिन वजन में बहुत भारी थी। धीरे-धीरे मेरी उसकी दोस्ती बढ़ने लगी। मैं सुबह-सुबह उसके पिंजरे के अंदर चली जाती। सफाई के लिए उसे दूसरे पिंजरे में भेज देती। उसे दूध देना, पानी देना और उससे बातें करना। यह हर सुबह का काम होता था। सप्ताह में दो बार उसे कच्चा मांस खिलाती थी। वह भी अपने हाथ में टुकड़े रखकर। वैसे मैं तो पूरी तरह शाकाहारी हूँ लेकिन रानी का खाना तो उसे मिलना ही चाहिए। शायद इसीलिए उसने मेरी दोस्ती स्वीकार की थी। जब में ऑफिस जाती तो उसे कहती- 'रानी, मैं ऑफिस जा रही हूँ'। फिर वह देर तक पिंजरे की उस दिशा में खड़ी रहती, जिधर से मेरी कार जाती थी। वापस आने पर मैं उसे
बताती- 'रानी, मैं वापस आ गई हूँ।' वह तुरन्त पिंजरे के पास आती और सिर सहलाने को कहती।

मेरे बच्चे और पड़ोस के कई बच्चे बाहर से ही उससे बातें करते। कभी मुझे दूरदराज के गाँवों में भी जाना पड़ता था। उन दो तीन दिनों के लिए रानी अकेली पड़ जाती थी। मैरे लौटने पर वह खूब उछल-कूद मचाती थी। एक बार मैं टूर से लौटी तो देखा, रानी के पैर की हड्डी टूट गई है। पता चला कि चिड़ियाघर का उसका जानने वाला कर्मचारी शिकलगार घर में आया था। उसने रानी को बाहर निकाला। कुछ उसके साथ खेला-कूदा भी। फिर क्या हुआ यह मैं ठीक से नहीं जान सकी, लेकिन वह कहीं से गिरी और हड्डी तोड़ बैठी। शहर के प्रख्यात अस्थि विशेषज्ञ डॉ. कुलकर्णी ने उसके पैर पर प्लास्टर लगाया। कुछ एक्स-रे भी किए, जो आज भी उनके संग्रह में यादगार बने हुए हैं। दस-बारह दिनों में रानी ठीक भी हो गयी।

यों तीन माह बीते। जो रानी पहले एक फुट लंबी थी, अब साढ़े चार फुट लंबी हो गयी थी। वजन में भी भारी। अब मैं उसे गोद में नही उठा सकती थी। फिर एक बार मुझे पंद्रह दिनों के लिए बाहर जाने की नौबत आयी। बच्चों के साथ रहने के लिए गाँव से मेरी माँ आ गई। घर में पैर रखने से पहले ही बोल पड़ी 'यह रानी यहाँ क्यों है?' मैंने तुम्हें कई चिट्ठियाँ लिखी थीं कि इसे वापस भेज देना। अब तो तुम्हें चुनना पड़ेगा, या तो मैं यहाँ रहूँगी या यह रानी ! मै बच्चों की देखभाल कर सकती हूँ, पर सिंह की नहीं।' इस प्रकार रानी फिर विदा हुई सांगली नगरपालिका के उसी छोटे-से कमरे में जहाँ से उसे निकालने के लिए मैं ले आई थी।

अगले एक वर्ष तक मैं सांगली में रही। तब मैं बीच-बीच में चिड़ियाघर जाकर उससे मिलती और बाहर से ही उससे बातें करती। चिड़ियाघर वाले मुझे अंदर जाने की अनुमति देकर रिस्क नहीं उठाना चाहते थे। फिर मेरा सांगली से तबादला हो गया। तब भी करीब एक वर्ष तक यदाकदा मैं सांगली गई तो देखा कि उसे मेरी याद थी और रानी पुकारने पर वह पास आ जाती थी। धीरे-धीरे वह भूल गई और मेरा वहाँ जाना भी समाप्त हो गया।

जीवन चलता रहता है। चिड़ियाघर में रानी दूसरी सिंह- सिंहनियों के बीच रही। पहली बार उसने तीन बच्चे जने ! बाद में और समय बीतता गया। शिकलगार अब बूढ़ा होकर रिटायर हो गया है। रानी के बच्चों के बच्चे भी आ गए हैं। एक दिन रानी मर गई तो सांगली चिड़ियाघर के अधिकारी ने खास तौर पर मुझे फोन करके यह दुःखद समाचार सुनाया। चिड़ियाघर के पुराने कर्मचारी पूछते हैं- 'आप कोई नया बच्चा रखेंगी? लेकिन कई अच्छे काम जीवन में एक बार ही हो पाते हैं,
बार-बार नहीं होते !

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