Wednesday, August 8, 2007

१७-- चिंगी-डेनिस

१७-- चिंगी-डेनिस

कई वर्ष बीते। बच्चे स्कूल जाने लगे थे। एक बार जत्रा देखने गए तो साथ में एक पिंजरा और उसमें तोता-तोती की जोडी भी थी। मुझे और प्रकाश को बुलबुल की याद आई। लगा कि इन पंछियों को पिंजरे में न रखें। फिर भी बच्चों का उत्साह देखकर रख ही लिया। तोते की गले में लाल रंग की चौड़ी लकीर बनी होती है, जबकि तोती का गला बाकी शरीर के रंग जैसा हरा ही होता है। इसी से उन्हें पहचाना जा सकता है। हमने तोते का नाम रखा 'डेनिस'। हाँ, उसी 'डेनिस-दि मीनेस' वाले कार्टून के नन्हें शरारती डेनिस के नाम पर। और तोती का नाम रखा 'चिंगी'। यह भी हमारे जमाने की मराठी तीसरी चौथी कक्षा की पुस्तक का एक नटखट नन्हा पात्र था। बच्चे इस नाम के लिए पहले राजी नही हुए तो उन्हें नटखट चिंगी के कारनामों की कई कहानियाँ सुनानी पड़ीं।
ऐसी ही एक कहानी यों हैं- एक बार चिंगी की माँ चिंगी को साथ लेकर रेलगाडी की सवारी पर निकली। जाना था आठ-दस स्टेशन आगे मौसी के बेटे की शादी में। दोनों जनी महिला डिब्बे में बैठी। अगले स्टेशन पर काला बुर्का ओढे, एक
मोटी ताजी महिला डिब्बे में चढी और चिंगी की बगल में धप्प से बैठ गई। चिंगी खिडकी से बाहर की दुनिया देख रही थी। पहले भागने वाले पेड़ो की कतारें और अब स्टेशन की भीड भाड। उसे बुरा लगा कि उसकी जगह कम हो गई है। ऊपर से यह महिला तो उसे कोने में ठेल रही थी।
उधर चिंगी की माँ अपनी साथी प्रवासी महिला से बातें करने में मशगूल थी।
गाडी चल पडी। अब चिंगी को बाहर के पेडों से कोई मजा नही आ रहा था। उसने अब तक कभी बुर्कें वाली महिला नही देखी थी। उसका नटखट दिमाग उसे चुप न बैठने दे। बुर्के के पीछे क्या है? देखने के लिए वह उतावली हो उठी। उसने हिम्मत की। एक झटके से बुर्कें को थोडा सा ऊपर उठाया और नीचे से अंदर झांका। महिला ने हडबडाकर उसका हाथ झटक दिया और मुँह फेर कर बैठ गई। चिंगी चुप रही।
कुछ देर बाद वह अपनी माँ के पास जा बैठी। फुसफुसाकर बोली- 'जानती हो उस मौसी ने बुर्का क्यों पहन रखा है? क्योंकि उसकी बडी मूछें हैं। उसे शर्म आ रही होगी।'
माँ की सहेली का माथा ठनका। वह एक शिक्षिका थी। अगले स्टेशन पर वह अपनी बोतल में पानी भरने के लिए उतर गई। वापस लौटी तो उसके साथ पुलिस थी। पुलिस बुर्केवाली महिला के पास पहुँची।
चिंगी ने पुलिस को बताया- 'हाँ, इसके चेहरे पर बडी बडी मूंछे हैं।'
पुलिस ने उसे धर दबोचा। बुर्कें की आड में वह एक शातिर चोर था। पुलिस ने चिंगी को इनाम दिया।
कहानी पंसद आई तो 'चिंगी' नाम को मंजूरी मिल गई। डेनिस और चिंगी बच्चों के साथ घुलमिल गए। उन्हें बोलना या सीटी बजाना सिखाने के लिए हमने बडे प्रयास किए। लेकिन वे नही सीखे। डेनिस ने थोडा बहुत धुन पर सीटी बजाना सीख लिया। बाकी केवल टयाँ, टयाँ.....जितना बाकी तोते बोलते हैं।
तोते स्वभाव से ही चुहल बाज होते हैं। डेनिस और चिंगी भी थे। पिंजरे की डंडियों पर फुदकना, एक दूसरे को चोंच मारने का नाटक करना, कटोरियाँ उलट देना इत्यादि। एक प्रिय खेल था, उलट कर पांव और चोंच के सहारे पिंजरे में नीचे से ऊपर तक चढ जाना। हमारा बडा मनोरंजन हो जाता।
फिर भी कभी कभी मेरे मन में प्रश्न आता- ये पंछी इतने खुश कैसे हैं? बचपन में मैंने मराठी की एक लोकप्रिय कविता याद की थी- बडी अच्छी कविता थी- जिसका अर्थ था-
फल भी हैं मधुर खाने के लिए, और हैं कई मेवें।
सोना मढा पिंजरा है- हीरे जडा, रहने के लिए।
फिर भी वह तोता दिन रात मन चित्त में दुखिया रहे।
स्वतंत्र उड़ने के सुख का हर घड़ी स्मरण करे।
मजे की बात कि कई बार बच्चों के शाम के पाठ डेनिस चिंगी के सामने बैठ कर ही होते। उनमें एक से तीस तक पहाडे शामिल थ, गणित के नुस्खे थे, कविताएँ- मराठी, हिंदी, अंग्रेजी की थी, संस्कृत के पाठ थे, कुछ भूगोल, इतिहास के भी। कविता-पाठ में यह कविता भी शामिल थी।
फिर जाड़े की ऋतु आई। एक दिन कडाके की ठण्ड पडी। दो दिन सूरज गायब। तीसरे दिन सूरज दिखा तो बच्चों ने कहा- डेनिस और चिंगी की भी छत पर धूप में ले चलते हैं- बेचारे ठिठुर रहे हैं।
वे ऊपर गए। थोडी ही देर में दौडते हुए नीचे आए- 'माँ, बाबूजी, जल्दी ऊपर चलो, लेकिन कोई आवाज मत करना।'
हम दबे पांव ऊपर गए। अजीब दृश्य था। पिंजरे के अंदर डेनिस और चिंगी 'टयां-टयां' कर रहे थे- हताशा में उपर नीचे हो रहे थे- सिर पटक रहे थे। बगल में पेड पर दस-बीस तोतों का झुण्ड बैठा 'टयां टयां' कर रहा था। दो तीन तोते उड कर दुखी आवाज निकालते हुए पिंजरे तक आते और लौट जाते। मानों कह रहे हों- 'कोई तो इन्हे छुडाओ।'
दो मिनट हुए। बच्चों ने कहा- हम इन्हें छोड रहे हैं। हृषीकेश ने पिंजरे का दरवाजा खोला। चिंगी और डेनिस बाहर निकल, उड कर झुण्ड में चले गए।
खुशी खुशी हमने उसी समय पिंजरे को तोड दिया।
उस रात हमारे घर में लम्बी चर्चा हुई, गेराल्ड डरेल की और उसके अद्भुत चिडियाघर की। एक ओर है शहरों में बढती जनसंख्या और घटता हुआ प्रकृति का साथ। बच्चों का परिचय पेड, पौधों, फूलों से पंछियों से, प्राणियों से नही होता। उन्हें दिखाना पडता है- भैंस क्या होती है, तोते,बिल्ली,बकरी,गाय,जामुन या हरसिंगार के पेङ..... न जाने कितना और क्या क्या ! जो अभिभावक उनके ज्ञानसंवर्धन के लिए सचेत हैं, वे बच्चों को चिडियाघर ले जाते हैं- दिखाने के लिए। लेकिन चिडियाघर का अर्थ है जानवरों की, पंछियों की स्वतंत्रता का उल्लंघन। दूसरी ओर हमारे जंगल कट रहे हैं और वन्य प्राणियों के लायक नही रहे। ऐसी कई प्रजातियाँ हैं जिनके जानवरों की संख्या घट रही है। जंगल अब उनके अनुकूल नही रहे। उन्हें बचाना है तो उनके लिए कोई खास माहौल बनाना पडेगा।
गेराल्ड डरेल ऐसे वन्य-प्राणी-प्रेमी थे जिन्हें बचपन से कई वन्य पशु पक्षियों के साथ एक दोस्त बनकर रहने का अनुभव मिला। दोस्त- जो पिंजरे में बंद होकर न रहे, बल्कि एक सच्चे दोस्त की तरह शरारतें करें, रूठे, मनाए, सुख में, दुख में महसूस करे। बडा होने पर डरेल ने एक विशाल द्वीप पर अपना अजूबा चिडियाघर खोला, जहाँ घायल पशु-पक्षी देखभाल के लिए लाये जाते हैं। नष्ट होने के खतरे में पड़े प्रजातियों के अच्छे प्रजनन की व्यवस्था होती है। जानवरों को पिंजरा नही, खुला वातावरण होता है। उनकी आदतें, खानपान इत्यादि की पढाई की जाती है, उन पर फिल्में बनती हैं। कुल मिलाकर एक पूरी दूसरी दुनियाँ, जो किसी वन्य प्राणी को पिंजरे की कैद दिए बगैर उसकी देखभाल और उससे दोस्ती करती है, और उन्हीं
को अपनी आर्थिक आय का साधन और आने वाली पीढी के लिए पढाई का माध्यम भी बनाती है। डरेल की कई पुस्तकें हमारे घर में 'बार बार पढने वाली' श्रेणी में रखी हैं। उस दिन हमने उन्हें दुबारा पढने के लिए उठा लिया।

1 comment:

Unknown said...

बहुत सुन्‍दर लिखा है. बधाई !