अल्सेशियन कुत्ते की जात ही बड़ी बुद्धिमान् और स्वामिनिष्ठ होती है । उधर प्रकाश का भी जानवरों से दोस्ती करने का एक अपना ही अंदाज है । इसलिये प्रकाश की सिखाई हुई बातें टोटो बड़ी तेजी से सीख लेता था । पुणे पुलिस कमिशनर के डॉग-स्कवॉड में उन दिनों मिस्टर दायमा ए.सी.पी. थे जो कुत्तों के ट्रेनिंग में बडे माहिर थे । टोटो को लाने से पहले हम दोनों ने बाकायदा उनके साथ दो-तीन घंटे विस्तार से चर्चा कर यह समझा था कि प्रशिक्षण में किन बातों का ध्यान रखते हैं । मिस्टर दायमा ने हमें एक पुस्तक दिखाई और सिफारिश की कि आप इसे अवश्य खरीदें । इस पुस्तक के विषय में कुछ न कहना बड़ा ही गलत होगा ।
पुस्तक का नाम था 'ट्रेन युवर ओन डॉग' ! शुरू से आखिर तक कार्टूनों से भरी यह किताब इतनी मजेदार है कि जिसे कुत्ता न भी पालना हो, वह भी इसे मजे से पढ़ सकता है । लेखक थे राजा बजरंग बहादुर सिंग ऑफ भद्री, श्री सिंग अपने आप में एक खास शख्सियत रखते थे और देशभर में चोटी के कुत्ता शौकिनों में उनका नाम था । सन् १९६१ में वे हिमाचल प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे और प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के खास दोस्त थे । उनकी गवर्नरी के दौरान हिमाचल प्रदेश में डॉग स्क्वाड तैयार करने की योजना बनी ।
लेकिन कुत्तों को ट्रेनिंग कौन देगा और कैसे ? किसी पुलिस वाले को यह नहीं आता था । इसलिये भविष्य के ट्रेनर पुलिसों के मार्गदर्शन के लिये सिंग साहब ने यह पुस्तक लिखी । पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है बंगाल के राज्यपाल ने, जो स्वयं कुत्तों के शौकीन थे । इस पुस्तक के चलते हिमाचल पुलिस का मनोबल बढ़ा और देश का पहला डॉग स्क्वाड हिमाचल पुलिस ने तैयार कर दिखाया। पुस्तक का प्रकाशन और सारे अधिकार हिमाचल के इन्सपेक्टर जनरल ऑफ पुलिस के पास सुरक्षित हैं। पुस्तक बिक्री से होने वाला सारा मुनाफा पुलिस वेल्फेयर फंड में जमा होता है । प्रकाशक की भूमिका में आगे लिखा है कि इस पुस्तक में वर्णित ट्रेनिंग का हरेक गुर श्री सिंग ने खुद आजमाया था। हर गर्मी वे पंडितजी के प्रिय कुत्ते मोती को ट्रेनिंग के लिये शिमला ले आते थे। पंडित जी की अनुमति से हिमाचल पुलिस के सामने मोती ने वे सारे कारनामे कर दिखाये। तब जाकर कहीं हिमाचल के डॉग स्क्वाड की योजना बनी । आज भी यदि यह पुस्तक कोई खरीदना चाहे तो उसे शिमला के पुलिस हेड क्वाट्रर से मनीऑर्डर भेजकर इसे मँगवाना पड़ता है । खैर !
यों टोटो की ट्रेनिंग कुछ पुस्तक से पढ़कर, और कछ खुद आजमाकर शुरू हुई । सबसे पहले उसने सीखा कि उसका नाम टोटो है और आदित्य का नाम आदित्य । घर में गंदा नहीं करना है, जब तक उसे घुमाने नहीं ले जाते तब तक शू-शू या शी-शी नहीं करना है, इन बातों का ध्यान वो रखता। हमारा घर तीसरी मंजिल पर था। टोटो छोटा था, तब उसे कई बार शी-शू करने होती थी । तब वह एक बारीक मिमियाती आवा.ज निकालता था कि प्लीज, अब मुझे नीचे ले चलो । नीचे ले जाने पर वह दौड़ लगा सकता था या उछल-कूद कर सकता था । पहले तो उसने यही चालाकी करनी चाही कि वही खास आवाज निकालो तो ये लोग मुझे घुमाने ले ही जायेंगे । लेकिन थोड़ा सा डाँटने और समझाने के बाद वह समझ गया कि इस तरह का झूठ नहीं बोलना चाहिए। फिर उसे सिखाया गया कि सोफा फाड़ना नहीं है और जूते, चप्पल या मोजे भी नही चबाना है । लेकिन यह सीखने से पहले वह एक सोफा कवर और चार-पांच जूते-चप्पल फाड़ चुका था।
कुत्तों को सिखाने के लिए डॉग बिस्किट अच्छे होते हैं। दूसरा उपाय है उन्हें प्यार से सहलाना और हल्का मसाज करना। टोटो की अगली ट्रेनिंग थी सीटी बजाकर बुलाने की । सीटी पर एक खास तरह की धुन मैंने और प्रकाश ने तय की थी । उसे सुनकर टोटो जहां कहीं हो, दौड़ा चला आता था । फिर हवा में छलांग लगाकर बिस्किट लेना या ऊपर फेंका हुआ बिस्किट हवा में ही लपक लेना, लेकिन खाने की इजाजत मिले बगैर न खाना, फेंका हुआ बॉल, लकड़ी या पत्थर ढूंढकर लाना इत्यादि बातें उसे सिखाई गईं।
कोई आता और बेल बजाता तो टोटो भौंकने लगता, लेकिन हमारे चुप कहने पर रुक जाता । फिर हमने उसे शब्द सिखाया - स्पीक ! तब उसने 'स्पीक' कहने पर भौंकना सीखा ।
एक बार पुणे में एक दहशत का माहौल छा गया । चार-पाँच जनों की टोली ने लगातार खून किये थे - कभी इक्के दुक्के को, तो कभी पूरे परिवार को मार डाला था। बाद में यह कांड 'जोशी-अभ्यंकर मर्डर केस' या 'जक्कल खूनी कांड' के नाम से जाना गया । उन दिनों हर आठ-दस दिन बाद कोई भयानक खून हो रहा था । पुलिस को सुराग नहीं मिल रहा था । अफवाहें जोरों पर थीं । शाम सात बजे के बाद पुणे की सड़कें वीरान होने लगीं । छोटे चोर उचक्कों की बन आई । हर बस्ती में छोटी-छोटी चोरियाँ होने लगीं । क्वीन्स गार्डन के सरकारी क्वार्टर्स में भी हुई। लेकिन टोटो की दहशत ऐसी थी कि हमारी बिल्डिंग में चोरी नहीं हुई । कभी अजनबी लोग दिखे तो टोटो ने उन्हें खदेड़ दिया । हमारे पड़ोस में चौधरी और दारजी परिवार थे । कोई अजनबी दिखे तो वे लोग भी कहते - 'टोटो देखना जरा' ! फिर टोटो यों भौंकता और उनके पीछे लगता कि वे भाग जाते। बाद में जक्कल तथा उसके साथी पकड़े गए, उन्हें फाँसी भी हुई।
इस घटना के कारण हम लोगों ने सोचा कि जब हम 'स्पीक' कहेंगे तो टोटो के अलावा और लोग भी तो समझेंगे। नहीं, उसे इशारों की भाषा सिखाना चाहिए । सो मुट्ठी को खोलने-बंद करने का इशारा करते और टोटो भौंकना शुरू कर देता। जब काफी लोग जमा हों, बातें ही चल रही हों, तो टोटो को दिखाकर प्रकाश धीरे से मुठ्ठी को खोलने - बंद करने का इशारा करते और टोटो भौंकना शुरू कर देता। इन ट्रेनिंग के लिए भी टोटो की खूब वाहवाही हुई।
दायमा ने हमें बताया था कि कुत्तों को सिखाने के लिये छोटे-छोटे दो तीन अक्षर वाले शब्द चुनने चाहियें और उनमें उच्चारण समता नहीं होनी चाहिए । सो हमने मराठी, हिंदी और अंगरेजी से अलग-अलग शब्द चुने । 'टोटो, पसर', कहने से वह चारो पैर फैलाकर सिर को जमीन पर रखकर पसर जाता, लेकिन 'बस' कहने पर केवल पिछले पैंरों पर सावधान होकर बैठ जाता - मानों कह रहा हो कि अब मैं किसी भी काम के लिये तत्पर हूँ ।
Wednesday, August 8, 2007
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