१६-- ना हो पिंजरा किसी के लिए
हमारे घर में एक बड़ा सा पिंजरा है और उसके साथ जुड़ीं दिल को उदास उदास बनाने वाली यादें भी।
मेरी नौकरी के शुरू के दिन थे। घर में केवल मैं, मेरे पति प्रकाश और हमारा प्यारा कुत्ता टोटो था। कभी कभी चोरी-चोरी दूध पीने के लिए पडोस से एक भूरी बिल्ली टपक पडती, जिसे टोटो अनदेखा कर जाता था। कार्यालय के लिए हम दोनों बाहर निकलते तो घर में बाहर से ताला और अंदर पूरा घर टोटो के लिए खुला होता था।
एक दिन सुबह टोटो को घुमाकर लाते हुए प्रकाश को रास्ते में एक जखमी बुलबुल पडा मिला। ऑफिस जाने की भागम् भाग में हमने उसकी थोड़ी मरहम पट्टी की, उसके सामने एक कटोरी में दूध, एक में पानी, कुछ दाने, बाजरा, गेहूँ वगैरा रखे और बेडरूम को बंद करके हम निकल गए। टोटो के लिए यह पहला दिन था जब घर का एक कमरा उसके लिए बंद किया गया था। उसे यह भी अखर रहा था कि इस नए मेहमान से उसे मिलने नही दिया जा रहा। उधर टोटो के कौतुहल से बुलबुल परेशान हो जाता।
तय किया गया कि शाम को आते समय एक पिंजरा लाया जाए। उसमें बुलबुल को रख दिया। शाम को एक बार फिर मरहम पट्टी हुई। सुबह जो पंछी अपनी जगह से हिलडोल नही पाया था वह अब थोडा संभल गया था। पिंजरे की डण्डी पर
आराम से बैठ गया। चलो, जगह तो उसे पसंद आई।
लेकिन अब भी वह अच्छी तरह चल नही सकता था। फिर उडने की बात तो दूर। पिंजरे में रखने से उस पड़ोसी बिल्ली का खतरा भी टल गया।
दो-तीन दिन सिलसिला यही रहा। हम घर में होते तो उसे पिंजरे से बाहर निकाल कर रख देते। हम सामने रहते तब टोटो उसे कुछ नही कहता, न तंग करता। शायद हमारे पीठ पीछे भी नहीं करता, लेकिन आजमाया नहीं। वह टोटो से डरता था। अब उसने चलना-दौडना और थोडी-थोडी दूर तक फुदकना शुरू किया था। ऑफिस जाने के समय और रात में हम उसे पिंजरे में रख देते।
आठ-दस दिनों बाद उसके पंखों में ताकत बढी तो उसे पिंजरे में डालना मुश्किल होने लगा। उसे कई लालच देकर पिंजरे के पास बुलाते। कभी कभी वह खुद अंदर आ जाता ; कभी उसे पकडकर अंदर रखना पडता। उसकी जख्म पर हाथ फेर
कर उसके ठीक होने की जाँच भी हम करते थे। हमें ऐसा लगा कि जख्म भरने में अभी समय लगेगा। वह हमसे हिल-मिल गया था। हम पर भरोसा करने लगा था। पिंजरे की डण्डी पर बैठा वह मधुर आवाज में टिट् टिटयूं गाता था, साथ बाँधी रस्सी पर झूले झूलता था और दाना-पानी खाने के लिए अपने आप ही पिंजरे में आ जाता। हम उससे बातें भी करते, जो शायद उसके लिए बकवास होती होंगी।
एक दिन उसे पकडने गए तो पहली बार उसने पंख फडफडाए और उडकर पहले जमीन से टेबुल पर और वहाँ से खिड़की के पेलमेट पर जा बैठा। हमने आपस में कहा- 'बस चार दिन और। उसके बाद उसे बालकनी से बाहर उड़ा देंगे।'
हमें यह भी डर था कि हमने उसे पहले ही उडा दिया तो वह ज्यादा उड़ नही सकेगा। कोई बिल्ली या चील उसे झपट लेगी।
अब उसे तीन तीन बार पिंजरे के अंदर डालने का समय हमारे पास नही था। क्योंकि उसके पीछे भागना पडता था। लेकिन अब भी रात में उसे पकडकर पिंजरे में बंद करना जरूरी था। वरना वह पंखे से टकरा जाए या बिल्ली आ जाए तो इतनी मेहनत बेकार। वह बाहर रहे तो हम पिंजरा खुला छोड देते, ताकि वह जब भी चाहे अंदर आकर दाना पानी कर ले।
एक रात उसने हमें खूब थकाया। उस पूरे दिन उसने पिंजरे के अंदर जाकर कुछ नहीं खाया था। करीब दो घंटे की भागदौड करके ही हम उसे पकड पाए और पिंजरे में बंद कर पाए। हमें तसल्ली हुई कि अब यह कुछ खा भी लेगा।
दूसरे दिन हमारा ध्यान गया कि यह तो अब भी कुछ नही खा रहा है, न ही आज इसने सुबह सुबह हमें गीत गाकर जगाया है। वह डंडी से नीचे भी नही उतरा था।
अब तक हमें उसके पंखों के फडफडाहट की, गाने की, पिंजरे की कटोरियों को ठनकाने के आवाज की ऐसी आदत पड गई थी कि उसकी चुप्पी देखकर हम अपने काम भी नही कर पाए। क्या चाय नाश्ता, क्या अखबार, क्या नहाना और क्या ऑफिस की सोच। उसकी चुप्पी से हम मायूस हो गए।
हमने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। वह बाहर तक नही आया। थोडी देर बाद हमने उसे निकाल कर जमीन पर रखा। वह बैठा रहा और थोड़ी देर बाद वापस पिंजरे में चला गया। हमारा दिल धक् हो गया। उसे बाल्कनी में रखकर हमने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया- जा बाबा, उड़ जा। वह उडे नही। डंडी पर उसने अपनी पंठ पिंजरे के दरवाजे की ओर कर ली।
उस दिन उसके पिंजरे को वापस बेडरूम में बद कर हम निकल गए। शाम को प्रकाश एक पक्षी-तज्ज के साथ लौटे। उनकी सलाह से किसी दवाई की दो बूंदें भी उसकी चोंच पर डालीं।
फिर भी वह न खाए पिए, न गाए, न उडे, न पिंजरे से बाहर आए। तीसरे दिन तो उसने आँखें भी बंद कर लीं। यहाँ तक कि प्रकाश ने उसे दोनों हथेलियों पर रखकर बालकनी के बाहर का आकाश दिखाया कि अब तो हमें माफ कर दे और उड जा। फिर भी वह गुमसुम बैठा रहा। हारकर हम उसे वापस पिंजरे में रख आए। चौथे दिन उसने प्राण त्याग दिए।
हम उसे किसी भी तरह नही भुला पाए। पंछी ऐसा भी करते हैं? अपनी मर्जी से प्राण त्याग कर सकते हैं? किसी पर इतने नाराज हो सकते हैं कि उसके निषेध में अपने आप पर सजा थोप लें? हम यह कभी नही जान सकेंगे।
Wednesday, August 8, 2007
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