रेशम कीड़े की बात
एक बार हम बीजापुर गए। वहाँ गोवलकुंडा किला अपनी विशालता और मजबूती के लिए प्रसिद्ध है। वहाँ रेशम उद्योग भी अच्छी तरह प्रस्थापित है। रेशम के कीड़ो का भोजन है शहतूत के पत्ते। हमारे साथ रेशम उद्योग विभाग में काम करने वाले अधिकारी भी थे। हमने देखा कि कैसे कर्नाटक सरकार के प्रोत्साहन से बीजापुर के किसान बडी मात्रा में शहतूत की खेती करते हैं। खेतों में लगने वाले खास पेड तो चार-पांच फुट उंचे ही होते है, वरना शहतूत के बडे वृक्ष भी होते हैं। अंडे से बाहर निकले रेश के कीड़े इनके पत्ते खा खाकर पंद्रह दिनों में मोटे हो जाते हैं। फिर वे सुस्त हो जाते हैं और खाना रोक देते हैं। तब उन्हें उठाकर खासतौर से बनी बांस की टोकरियों में या सूपों में रखा जाता है। अक्सर ये गोलाकार सूप, जिसे 'चंद्रिका' कहते हैं, दीवार पर फोटो की तरह टांग देते हैं और एक एक कीडे को उस पर जड़ देते हैं। दो कीडों के बीच अंतर रखा जाता है। अब कीडे अपने मुँह की लार से एक खास तरह का धागा बनाकर अपने चारों ओर एक मजबूत दीवार का घर बना लेते हैं। धागा उसके चारों ओर लिपटता रहता है। इस प्रकार दस पंद्रह दिनों में बन जाता है रेशम कोष।
इसी रेशम कोष को गरम पानी में उबाल कर उसकी बाकी सारी चिकनाई निकाल देते हैं और धागे को तकली या चरखे की तरह लपेटते हैं। फिर इसी धागे से रेशमी कपडे बुने जाते हैं। इस प्रकार शहतूत की खेती और रेशमी की पालने का एक बडा व्यापार कर्नाटक के किसान करते हैं। आज कल तमिलनाडु और आंध्र भी इसमें आगे हैं। धागा निकल जाने के बाद कोष के अंदर की खोल बच जाती है जो देखने में बडी सुन्दर, चमकदार, टिकाऊ लेकिन बिना काम की होती है। लोग इससे डेकोरेशन पीसेस या हार बना लेते हैं।
हम भी कई रेशम कोष इकट्ठे कर लाए। कुछ वर्षों में और मौके आते गए। हम मैसूर की रेशम रिसर्च इन्स्टिटयूट गए। वहाँ देखा, दूसरी तरह के रेशम का कीडा और उसका कोष। इसे 'टसर रेशम' कहते हैं। इसके कीडे जंगलों में साल, हर्रे और ओक के पेडों पर पलते हैं और उन्हीं पर अपने कोष बनाते हैं। आदिवासी उन्हें चुन लेते हैं और खादी ग्रामोद्योग या रेशम उघोग के आफिसों में बेच देते हैं। वहाँ इनसे धागा कातने की ट्रेनिंग दी जाती है।
टसर रेशम का कोष शहतूत रेशम के कोष से काफी बडा होता है। शहतूत रेशम का कोष एक बडे बनारसी बेर जैसा होता है जबकि टसर रेशम का कोष छोटे दशहरी आम जितना। हमारे देश में टसर की उपज करने वाले राज्य हैं- मध्यप्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र। मैसूर में हमने सोम साल के कुछ वृक्ष देखे, जो असम में घने जंगलों से मंगवाकर खास तौर पर पढाई के लिए लगाए थे। असम के इन वृक्षों पर एक तीसरी तरह का रेशम बुनने वाला कीडा पाया जाता है जिसे 'मोंगा रेशम' कहते हैं। यह दुनियाँ का सबसे चमकीला और सबसे मजबूत रेशम धागा होता है, जिसका सुनहरा रंग सोने जैसा चमचमाता है। पूरे संसार में असम ही ऐसा क्षेत्र है जहाँ सोम सोल के वृक्ष हैं और मोंगा रेशम बनाने वाले खास कीडे। लेकिन सोम साल की प्रजाजि और इन कीडों की प्रजाति दोनो ही नष्ट होने की कगार पर हैं। माना जाता है कि अगले पचास वर्षों में ये पूरी तरह विनष्ट हो जायेंगे। अभी तक हमारे देश में इन्हें बचाने की कोई ठोस योजना नही बनी है।
हमारे देश में ही रेशम कीडों की एक चौथी प्रजाति भी पाई जाती है जो एरंडी के पत्ते खाकर पलती है। इनके रेशम को एरी-रेशम कहते हैं। यह हुनर केवल बिहार तथा उड़ीसा के कुछ गांवों में ही बाकी रहा है। माना जाता है कि एरी-रेशम के कीडों की जाति भी नष्ट होने की कगार पर है। इसके कोष भी टसर के कोष जितने बडे लेकिन हलका भूरापन लिए होते हैं।
यदि छेडा नही गया, तो पंद्रह दिनों में रेशम कोष के अंदर का कीड़ा एक खूबसूरत तितली बन जाता है- इन तितलियों को 'मॉथ' कहते हैं, क्यों कि एक साधारण तितली से ये थोडे अलग होते हैं। इनके पंखों पर रेशम जैसी चमक होती है। कई वर्षों बाद हमने अपना रेशम कोषों का संग्रह भी ऑर्थोपोडा म्यूझियम को दे दिया।
साधारण तितली हो या रेशम तितली- उनके जीवन मे कई परिवर्तन आते हैं। नर-मादा तितलियाँ नाचते हुए आपस में मिलते हैं। इस मिलन के बाद मादा तितली अपने चहेते पेड के पत्तों के नीचले हिस्से में अंडे देती है। सूजी के दानों के
आकार के अंडे। मैसूर की संस्था में शहतूत की तितलियों को एक विशाल जालीवाले बंद घर में रखा जाता और मिलन के बाद मादा तितलियों को अंडे देने के लिए कागजों पर रख दिया जाता है, ताकि ये अंडे किसानों को बेचे जा सकें। लेकिन टसर, मोंगा या एरि रेशम की तितलियाँ बंद घरों में अंडे नहीं देती हैं। उन्हें खुला छोड़ना पड़ता है।
अंडे फूटकर उनसे कीडे निकलते हैं। मराठी में इन्हें सुरवंट कहते हैं। वे बडे पेटू होते हैं और पत्त्िायाँ खा खाकर, फूल जाने के बाद अपने चारों ओर कोष बनाकर सो जाते हैं। नींद में ही इनके शरीर में परिवर्तन होता है और वे बन जाते हैं खूबसूरत तितलियाँ जो कोष को काटकर बाहर निकलते हैं। इस परिवर्तन को मेटामॉर्फसिस कहते हैं।
Wednesday, August 8, 2007
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