Wednesday, August 8, 2007

१८-- कीटक छंद 1 -- दीमक रानी

१८-- कीटक छंद

मेरे बचपन के दिनों में बच्चों की मासिक पत्रिका 'चंदामामा' एक संस्कृति बनी हुई थी। कितने विचारों के बीज इस पत्रिका ने कितने बालमानसों में बोए इसकी गिनती बहुत बडी होगी। एक बार उसमें चींटी और चीटों के विषय में एक लम्बी लेखमाला चली। एक तो यह लेखमाला अत्यन्त मनोरंजक रूप से लिखी थी ; दूसरे रंगीन चित्र। उस जमाने में इतने रंगीन चित्र नही हुआ करते थे। लेखमाला में चीटीयों के राज्य, उनके टोली युद्ध, उनकी रानी, वर्षा के समय अपने अंडे मुँह में लेकर बिल से निकलना और एक लम्बी कतार में दूसरी जगह पहुँचना, उनके मुहल्ले, गांव, किले इत्यादि बाबत जानकारी थी। हो न हो, तभी
से मुझमें कीडों के प्रति रूचि बढी। वर्षा ऋतु के ठीक पहले अपना घर बदलने के काम में जुटी चीटीयाँ मैंने कई बार देखी हैं। काली चींटी काटती नही है, जबकि लाल चींटी काटकर एक तीव्र डंख दे जाती है। लेकिन काली चींटीयों और लाल चींटीयों के टोली युद्ध में मैंने लाल चीटीयों को हारते देखा है। इसी से काली चीटीयों को मैं अपना दोस्त ही मानती हूँ।
अब चींटों की बारी। घरों में प्रायः काले चींटे ही आते हैं जबकि लाल चींटे घने जंगलों में ही पाए जाते हैं। वैसे काले चींटे, अपनी ओर से कुछ नही करते लेकिन छेडो तो काटते हैं। चींटीयाँ जितनी नियमबद्ध और अनुशासन प्रिय होती है, चींटे उतने ही अनुशासन हीन और बेतरतीब होते हैं। कई चींटे कतार बद्ध रूप से कहीं जा रहे हो, ऐसा दृश्य सहजता से नही मिलेगा। हाँ, बागों में कई बार उन्हें कतार बनाकर जाते हुए मैंने देखा है। कभी-कभी दो कतारें भी होती हैं, आनेवाले चींटों की और जाने वाले चीटों की। इनके चलने से मिट्टी में एक रेखा सी बन जाती है। मानों काले चींटों का टू-लेन-हाइवे। यदि कोई दूसरा प्राणी उधर से नही चले तो चींटों की यह टू-लेन-हाइवे देर तक बनी रहती है। एक दिन अपने कुछ मित्रों को मैं पहाडी घुमाने ले गई। वहाँ उन्हें चीटों का हाइवे दिखाया। पहले तो वे मानने के लिए तैयार नही हुए। लेकिन कुछ दूर जाकर हमें वाकई एक कतार में चलते हुए चालीस पचास चींटों का झुण्ड मिला। तब जाकर मेरे मित्रों ने माना की 'चंदामामा' की परम्परा कितनी बडी है।
पुणे में एक म्यूझियम ऑफ आर्थोपोडा अर्थात्‌ कीटक-संग्रहालय है। छोटा सा, एक घर के अंदर ही शौकिया रूप से बना। लेकिन यहाँ कीटक जगत्‌ की कई मजेदार बातें देखने को मिलती हैं। चित्र , मॉडेल्स, नमूने हर बार नए सिरे से सजाकर नई नई जानकारियों के साथ लगाए जाते हैं। चीटी और दीमकों के बिल, उनमें बने रास्ते, टनेल्स, रानी का किला, हवा जाने का रास्ता इत्यादि सबकुछ यहाँ देखा जा सकता है। खेकडों की खोल भी हैं और भी काफी कुछ। मैं पांच-सात वर्षों में एकाध बार वहाँ चक्कर लगा लेती हूँ।
बरसात के दिनों में कई बार पंखवाली चींटीयाँ देखी जा सकती हैं। बचपन में एक दिन हमारे आंगन में लगे केले के पेड के पास जमीन से निकल कर आकाश में लपकते हुए पंखीं चींटीयों के झुण्ड देखे। जमीन के किसी छेद से भाप की तरह अथाह संख्या में पंखी - चीटीयाँ निकल रही थी और घर की दीवारों के साथ साथ सारे आकाश को ढँक रही थीं। किताबों में पढा था कि टिड्डों के दल इसी तरह आकाश को ढँकते हुए आते हैं और सारी फसल खा जाते हैं। लेकिन थोडी ही देर बाद जैसे अचानक पंखीचीटीयाँ आईं उतने ही अचानक कई मेंढक, छिपकलीयाँ,गौरेया, काली चिडियाँ जाने कहाँ से आए और पंखीचींटीयों को खाने लगे। धीरे धीरे जमीन से निकलने वाली चीटीयाँ कम हुईं। हमारी दीवारें, आंगन के पेड-पत्त्िायाँ और आकाश साफ हो गए। चीटीयाँ घटने लगीं तो बाकी सभी भक्षक प्राणी भी एक एक करके चले गए। आधे घंटे बाद कोई आता तो कोई नामोनिशान नही मिलता कि यहाँ कुछ हुआ भी है। कई वर्षों तक मेरे मन में वह गूढ रम्य दृश्य बसा रहा, जिसका कोई ओर-छोर नही था।
कई वर्षों बाद मैं पश्च्िाम महाराष्ट्र विकास महामंडल में नियुक्त थी। हमारा कार्यालय एक नई बिल्डिंग में जा रहा था। उसे एण्टी टरमाइट ट्रीटमेंट के लिए अर्थात्‌ दीमक से बचाने के लिए खास व्यवस्था करनी थी। इस काम के लिए राजशेखर नामक सज्जन ऑफिस आए। वे बडी बडी संस्थाओं और बिल्डरों के लिए ऐसे काम करते थे। अपनी जानकारी देते हुए बताया कि कैसे उन्होंने देहरादून की फॉरेस्ट रिसर्च इन्स्टिटयूट संस्था में इस प्रकार की ट्रेनिंग पूरी की है। हाल में ही राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (ग़्क्ख््र) के प्रांगण में दीमक की एक बडी बांबी उन्होंने उखाडी था और बिल के अंदर से निकली रानी दीमक को नमूने के तौर पर फार्मोलिन में रख लिया था। फार्मोलिन एक ऐसा द्रव पदार्थ है कि उसमें मरे हुए कीडे रख देने पर सालों साल तक उनके शरीर खराब नही होते। सभी प्राणिशास्त्र्िायों की पढाई का महत्वपूर्ण साधन है फॉर्मोलिन में डुबा कर रखे हुए कीडे।
मैने उत्साह में भरकर राजशेखर से पूछा- 'किसी दिन मुझे दिखा सकेंगे रानी दीमक?' उस भले आदमी ने अपनी ब्रीफकेस खोली और एक शीशी निकाली। उसमें पारदर्शी फॉर्मोलिन भरा था और अंदर एक मरा हुआ कीड़ा था- रानी दीमक। तो जनाब इसे ब्रीफकेस में रखकर ही घूमते हैं? लेकिन उसे कीडा कहना गलत होगा, क्योंकि मेरे अंगूठे जितनी मोटी पंद्रह सेटीमीटर लम्बी थी वह। वैसे दीमक एक छोटा कीडा ही होता है- लेकिन उनकी रानी दीमक बड़ी होती है। असल में चींटी या ऍण्ट, नहीं, बल्कि दीमक अर्थात टरमाइट होती हैं।
बारिश के समय दीमकों के पंख निकलते हैं और वे आकाश में उड जाते हैं। वहाँ नृत्य करते हुए नर और मादा दीमकों का मिलन होता है। मिलने के बाद दोनों जमीन पर आ जाते हैं और मादा दीमक अंडे देती है। इन अंडो से तुरन्त कामकाजी दीमक निकलते हैं, जो बिल बनाना शुरू कर देते हैं, फिर नर और मादा दीमक उसी में रहने लगते हैं। वर्ष में केवल एक बार यह मौसम आता है जब नर-मादा दीमकों का मिलन होता है। उस समय बिल से निकलने वाले अनगिनत जोडे पशुपक्षी के भक्ष्य बन जाते हैं। यही प्रकृति का नियम है। अन्यथा इतने दीमक पैदा होंगे, जो खतरा बन जाएंगे। बहुत बहुत कम यानी करीब एक करोड में से एक जोडा बचता है और अपना बिल बनाता है।
...........तो यह था उत्तर बचपन में देखे उस गूढ रम्य दृश्य का- दीमक का बिल, मिलन-मौसम में पंखवाले अनगिनत नरमादा दीमकों का निकलना, उनका मिलन-नृत्य, जो हम लोग नही देख पाए, शायद किसी प्राणीशास्त्री ने देखा होगा, और उनका मेंढक-चिडियों-छिपकिलियों के पेट में समा जाना.....। मैं बडी देर तक अभिभूत बैठी रही। इतना तो पता चला कि यदि फिर कभी उस दृश्य को देखना है तो दीमक का बिल ही उसका उत्तर है। मुझे घात लगाकर बैठना होगा, पहले ऐसा मकान चुनना होगा जिसके पास दीमकों की बांबी हो, फिर बारिश के दिनों में चौबीसों घंटे उसकी चौकसी करनी पडेगी, तब कहीं वह दृश्य देखने को मिल सकता है। कोई बात नही, कम से कम पता तो चला कि चौकसी कहाँ करनी है- कर पाऊँ या ना कर पाऊँ
अलग बात है।
मैंने राजशेखर से कहा- यहाँ पुणे में हमारी एक जमीन है, जिस पर घर बनाने का विचार है। लेकिन उसमें भी एक दीमक की बांबी है- करीब चार फूट ऊंची। हमे समस्या है कि उन दीमकों का क्या उपाय करें। राजशेखर ने तत्काल मदद करने का आश्र्वासन दिया।
तय हुआ कि अगले रविवार हमारी जमीन पर जाएंगे। वहाँ दीमक की बांबी हटाई जाएगी। उसमें जो रानी दीमक निकलेगी उसे हम भी रख लेंगे।
रविवार दोपहर मेरे और पास पडोसियों के दस बारह बच्चे कैमरे लेकर पहुँचे। राजशेखर के मजदूर कुदाल, फांवडे ले आए थे। उनके पास फॉर्मोलिन भरी दो तीन बडी शीशियाँ भी थी। हमें उस बांबी में दीमक के द्वारा बनाए रास्ते, सुरंग आदि के फोटो लेने थे। राजशेखर ने बताया कि बांबी के अंदर ऑक्सीजन मिलता रहे इसलिए दीमक कुछ फंगस जीवाणु अपनी कॉलोनी में रख लेते हैं। जैसे हम मवेशी पालते हैं उसी तरह से दीमक फंगस जीवाणुओं को पालते हैं। दीमक अपने खाने के लिए जो भी लकडी के बुरादे और हरी पत्त्िायाँ लाते हैं, उन पर ये जीवाणु भी अपनी पैदावार बढाते हैं- उस प्रक्रिया में वे ऑक्सीजन छोडते हैं, जिससे दीमकों को अपनी बांबी में ताजी हवा मिलती है।
हमें इन सबकी फोटो लेनी थी। सबसे अहम्‌ काम था रानी दीमक को सही सलामत अलग करना। यदि दीमक की बांबी गिराने में सावधानता नही बरती तो वह ढह जाता है और मिट्टी के मलबे मे रानी दीमक कहाँ दबी उसका पता चलना असंभव होता है। फिर तो वह जीवित रहती है और उसके मजदूर दीमक इकट्ठे होकर दुबारा बिल बनाते हैं। इसलिए बांबी को ऊपर से शुरूआत करते हुए परत दर परत हटाया जायगा।
ऊपर की भुरभुरी सतह तो हाथ से ही हटाई गई और हमने देखा कि अंदर खूब कडी सतह है, जिसे कुदाल से खोदना पडता है। दीमक की मांद की पपडियाँ निकलने लगीं। कई कई तो तश्तरी जितनी बडी निकली। जैसा कुम्हार का बनाया खपरैल हो।
हजारों की संख्या में दीमक तितर बितर होने लगे। हम कहते- इन्हें रोको, ये हमारी जमीन पर फैल कर जगह जगह बस जाएंगे। राजशेखर हंसकर उन्हें देखते- आंद्म यह मजदूर दीमक है, आँद्म यह सैनिक दीमक है। इन्हें जाने दो। बिना रानी दीमक के ये दो दिन भी जीवित नही रहेंगे।
दीमक, चींटी, मधुमक्खी, बर्रे इत्यादि में यह विशेषता है कि इनके एक झुण्ड में केवल एक रानी यानी मादा कीडा और एक राजा यानी नर कीडा होता है। बाकी सारे या तो कामकाजी मजदूर होंगे या सैनिक जिनका कोई लिंग नही होता। वे अंडे नही देते, न प्रजाति बढाने में कोई योगदान करते हैं। लेकिन सारे काम वही करते हैं। रानी जब अंडे देती है, तो जरूरत के अनुसार तय करती है कि कितने अंडों में से कामकाजी मजदूर निकलेंगे और कितने सैनिक। जब कोई बिल पर आक्रमण करता है तो सैनिकों की संख्या बढ जाती है और वे शत्रु को डँस-डँसकर अपने झुण्ड की और रानी की सुरक्षा में डट जाते हैं। रानी के शरीर से निकलने वाली एक खास गंध से ही वे उसे पहचानते हैं और उनका पोषण भी रानी के शरीर से निकलने वाले एक विशिष्ट द्रव से होता है। इसी से यदि रानी हटी, तो बाकी मजदूर या सैनिक मर जाते हैं। ऐसी है यह मातृसत्ता व्यवस्था।
अब तक हमने बांबी की परतों की कई बडी-छोटी तश्तरियाँ इकट्ठा कर लीं। फिर बारी आई फंगस जीवाणुओं के कॉलनी की। मधुमक्खी या बर्रे की छत्ते की तरह ही ये भी छत्ते थे। षट्भुज के आकार में दीवारों से लगी दीवारें, अंदर से खोखलीं- ऐसे छत्तों के कई छोटे बडे टुकडे इकट्ठे हो गए। ये सारे टुकडे हम और पड़ोसी अपने अपने घर ले गए। लेकिन पता नही था कि उन्हें धूप में सुखाना पडता है- सो पांच छः दिनों में सारे गल गए। केवल फंगस का एक बडा छत्ता हमारे प्लॉट पर पडा रहा। धूप में सूखता रहा और बच गया। उसे हमने आज तक संभाल कर रखा हुआ है। वैसे ही जैसे किसी पेड का सूखा तना संभालकर रख लिया जाए।
तीन घंटों में हमने कई परतों, कई छत्ते के फोटो लिए। अब बांबी केवल एक फूट बची। यहाँ की रचना खास होती है। इसी हिस्से में एक क्वीन्स चेम्बर होता है। उसे बडी सावधानी से खोदा गया, ताकि वह ढहे नही बल्कि उसे ऊपर ऊपर से ही अलग करके फेंका जा सके। इस काम में राजशेखर के कर्मचारी अनुभवी थे। क्वीन्स चेम्बर पूरा खुद गया तो हमने देखा- दो दो रानियाँ थीं। ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता हे। वहीं पर राजा दीमक भी था जो एक बडे चींटे के आकार का था। हमने वे दोनों रानी दीमक, साथ में एक मजदूर दीमक, एक सैनिक दीमक और राजा दीमक को भी शीशी में डाल लिया। वह नमूना भी हाल तक हमारे पास था, जो अब हमने म्यूझियम ऑफ आर्थ्रोपोडा में दे दिया।
दीमक अपने खाने के लिए पेड के तने के छीलन ले आते हैं जो बहुत कडे होते हैं। उनके सेल्यूलोज का विघटन आसान नही है। इसीलिए दीमक डनहें खा नही पाते। इसी से वे फंगस के जीवाणु लाकर कड़े छिलकों पर उनकी कॉलानी बसा लेते हैं। यह कुछ उसी तरह की प्रक्रिया है जिससे हम मनुष्य मशरूम की पैदावार करते हैं। दीमक की मांद में भी अत्यन्त छोटे आकार के फंगस उगते हैं, जो दीमकों के खाने के काम भी आते हैं। यह भी प्रकृति का चक्र है। वरना पेड के तने के जो छिलके कई वर्षों तक भी विघटित नही हो पाते, उन्हें ये फंगस विघटित कर उन पर फंगस उगाते हैं। ये फंगस दीमक का खाद्य बनते हैं मेंढक जैसे बड़े प्राणियों का। इस प्रकार पेड़ के तनों का अन्नद्रव्य दूसरे जानवरों के लिए जल्दी उपलब्ध होता है।
राजशेखर और बच्चों में दोस्ती हो गई थी। वे कई बातें बता रहे थे। रानी दीमक की लम्बी आयु होती है- पचीस-तीस वर्ष। वह लाखों-करोडों अंडे देती है। साल में एक बार, वर्षारंभ के समय इन अंडों में से नर और मादा दीमक निकलते हैं- बाकी दिनों में केवल मजदूर और सैनिक। रानी से अलग कर देने पर बाकी दीमक जल्दी ही मर जाते हैं।
इस प्रकार ज्ञान की गई बातें सीखकर, दीमक की माँद खोदने का प्रत्यक्ष अनुभव लेकर, साथ ही कई फोटो और संग्रह लायक वस्तुएँ लेकर हम लोग लौटे। स्कूल की प्रदर्शनी में रखने लायक सामान बच्चों के पास इकट्ठा हो गया।अब हमने वे सारी वस्तुएँ कीटक संग्रहालय को दे रही हैं। क्या तुम भी अपने शहर में कीटक संग्रहालय बनवाना नहीं चाहोगे ?

1 comment:

P A Ramchandra said...

आपण हिंदी सहज आणि चांगलं लिहिलं आहे. आपल्यासारख्या बहुभाषाकोविद आणि अधिकारी व्यक्तींचीच आज महाराष्ट्राला खरी गरज आहे. धन्यवाद.