०६--लूटना भारद्वाज को
पुणे के मेरे घर में बाँस का एक बड़ा झुरमुट है, जो भारद्वाजों के लिए एक अच्छी पनाह है। वे अक्सर वहाँ आकर झुरमुट के अंदरी हिस्से में चले जाते हैं। वे नीचे से ऊपर चोंच का सहारा लेकर एक एक पैर टेककर ऐसे चढते हैं जैसे तुमने नारियल के पेड पर चढने वाले आदमी को देखा होगा। वहाँ वे कौवों से सुरक्षित रहते हैं। 'सुरक्षा' शब्द मैने इसलिए कहा कि भारद्वाज बडा होने के बावजूद एक थुलथुल पक्षी होता है- शायद उसे झगड़ा करना, आक्रमण करना इत्यादि नही आता है।
एक दिन एक भारद्वाज ने बगीचे में बड़ा गिरगिट पकड लिया और आ गया बांस के झुरमुट में। दो कौवों ने उसे देख
लिया। कौवे खुद गिरगिट नही पकड सकते, लेकिन खाने के लिए जरूर ललचा गए थे। वे भी बांस पर आ गए।
अब भारद्वाज अकेला और कौवे दो। उसकी चोंच से गिरगिट छीनने को तत्पर। भारद्वाज यदि झुरमुट के अंदर जा सकेगा तो बच जाएगा- कौवे अंदर नही जा पाते हैं। लेकिन अंदर घुसने के लिए भारद्वाज को अपनी चोंच और पैरों का सहारा चाहिए। अब चोंच तो फंसी हुई है गिरगिट संभालने में। मैं सारा तमाशा देख रही थी। कौवों का बार-बार उसे तंग करना, गिरगिट छीनने के लिए पास आना, भारद्वाज का पंख फडफडाकर उन्हें धमकाना, बाँस के अंदर घुसने का प्रयास, लेकिन जैसे ही अकल आए कि चोंच का सहारा तो वह ले नही सकता, उसका रूक जाना। नाटक चलता रहा। आखिर में कौवे उससे आधा गिरगिट झपटने में सफल हुए। वे आधा गिरगिट ले उडे। इसने भी हारकर ही सही, चैन की साँस ली होगी और धीरे धीरे, संभल संभलकर अंदर चला गया। बचा हुआ गिरगिट अब उसी का था- छीने जाने का कोई डर नहीं। उसे खाते हुए भारद्वाज खुश था या दुखी कौन कह सकता है !
Wednesday, August 8, 2007
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