Wednesday, August 8, 2007

०२--नाता-- कोयल और कौवे का

०२--नाता-- कोयल और कौवे का

कोयल और कौआ- दोनों ही काले। आकार-प्रकार में भी करीब-करीब एक जैसे। लेकिन कोयल की आँखें लाल होती हैं। वसन्त ऋतु में कोयल गाने लगती हैं, तब पता चलता है कि यह तो कोयल है।
वैसे जो दोनों से अच्छी तरह परिचित हैं, उनके लिये कोयल को पहचानना मुश्किल नहीं है।
आजकल बड़े शहरों में कोयल मुश्किल से ही देखे जा सकते हैं।
पुणे में मेरे घर के बड़े से आंगन में कुछ शहतूत के पेड़ हैं, जिन पर कोयलों का कब्जा है। जब पहली बार शहतूत पके और हम उन्हें तोड़ने गये तो लगा कि वे हमें घूर-घूरकर देख रही हैं। तबसे हमने उनसे सन्धि कर ली है। अब हम मानकर चलते हैं कि हमारे सारे शहतूत, सिंगापुरी चेरी और विलायती इमलियाँ कोयल और मैनाओं के लिए हैं, झडबेरी के बेर गिलहरियों के लिए। और अमरूद भी तोते और मैनाओं के लिए। कभी एकाध हमें खाने को मिल गया तो मिल गया। खासकर कोयलों का बर्ताव ऐसा होता है, मानो कह रही हों- कौन है रे? अच्छा, तुम रह रहे हो हमारे घर में? कोई बात नहीं रह लो। लेकिन बगीचे के अन्तिम छोर पर सुबबूल का पेड़ है जिस पर कौवे रहते हैं जो कोयलों को वहाँ नहीं आने देते।
एक बार हमारे घर में चर्चा हो रही थी कि इस पेड़ की कुछ बड़ी टहनियों को काटा जाए- 'आखिर
है तो कौवों का ही पेड़'! तभी बेटे ने कहा- 'नहीं-नहीं, टहनियाँ मत काटना ! यदि कौवे नहीं रहे तो कोयल के अंडे कौन पाले-पोसेगा?' इसलिए पेड़ और कौवे दोनों रह गये।
मेरी स्कूल की किताबों में एक वर्णन था कोयल और कौवे के आपसी सम्बन्धों का; कि कैसे कोयल बड़ा 'स्मार्ट' पक्षी होता है। उड़ने में वह कौवे से ज्यादा तेज होता है, अपना कोई घोंसला नहीं बनाता है। जब अंडे देने का समय आता है, तो नर कोयल कौवे के घोसले के पास जाकर उन्हें इतना तंग करती है कि उसे 'खदेड़ने' के लिए नर और मादा कौवा- दोनों बाहर आ जाते हैं और उसका पीछा करते हुए उसे दूर पहुँचाकर ही वापस आते हैं। लेकिन इस बीच मादा कोयल अपना काम कर जाती है। वह घोंसले में घुसकर उनके एकाध अंडे गिरा देती है और वहाँ अपने अंडे दे देती है। कौवे ही उन्हें सेते हैं। इस प्रकार कोयल मेहनत से बच जाते हैं।
स्कूल की किताब में इतना ही लिखा था। लेकिन एक दिन मैंने एक अजीब दूश्य देखा। बिजली के खम्भे पर तीन चार
बच्चे 'क्वा-क्वा'ठ, कर खाना माँग रहे थे और कौवा माता-पिता चारा चुगकर उन्हें खिलाये जा रहे थे। सारे चूजे यदि काले ही होते तो मैं यही समझती की कौवे हैं- अपने बच्चों को दाना चुगा रहे हैं; लेकिन नहीं। उनमें से एक चूजा 'मादा कोयल' था- इसलिए कि वह भूरे बदन और सफेद धब्बों वाला था- जैसी मादा कोयल होती है। तब हठात्‌ मेरी समझ में आया कि कौवे कोयल के अंडे तो सेते ही हैं, साथ ही जब उनमें से कोयल चूजे बाहर निकलते हैं तो उन्हें चारा-पानी भी खिलाते हैं, जब तक वे उड़ने लायक न हो जाएँ। चूजा कोयल भी 'कूहू-कूहू' की कूक नहीं लगाता, बल्कि कौवे की तरह 'क्वा क्वा' ही कहता है। और उस मादा चूजे का अलग रंग और सफेद धब्बे- जो में देख पा रही थी, और उसी कारण से मादा कोयल चूजे को पहचान भी रही थी- वह रंग कौवे ने क्यों नही देखा? क्या वे कलर-ब्लाइंड होते हैं? जो भी हो, मुझे लगा कि यह कोयल की ज्यादती है कि उसके बच्चों को चारा चुगाने का काम भी कौवे को ही करना पड़े।
एक दिन अचानक एक लेख पढ़ा, जो पुणे के ही किसी 'पक्षी-मित्र' ने लिखा था। कभी-कभी कोयल अपनी चालाकी कौवे पर ही नहीं, अन्य छोटे पक्षियों पर भी चलाती होगी। सो ऐसे ही एक नितान्त छोटे पक्षी 'टेलरबर्ड'- जो चिड़िया से भी छोटा होता है- के घोंसले में कोई मादा कोयल अंडा रख गई। टेलरबर्ड ने उसे सेया होगा तो कोयल चूजा भी निकल आया। अब इतने बड़े चूजे के चारे के लिए बेचारा छोटा सा टेलर बर्ड दौड़ धूप कर रहा था। चारा लाकर चूजे को खिलाने के लिए टेलरबर्ड को अपने शरीर का काफी हिस्सा उसके मुँह के अन्दर ले जाना पड़ता था। ऐसी ही एक फोटो इस पक्षी मित्र ने खींची, फिर फोटो और लेख छपवाकर कोयल की इस ज्यादती को जी भर कोसा। लेकिन कोयल भला क्यों वह लेख पढ़ने लगे !

1 comment:

Neethu.s nair said...

Nice!
i like it.
it can be more.