Wednesday, August 8, 2007

१८-- कीटक छंद --4

कीटक छंद

मेरा अतिप्रिय कीड़ा है काला भंवरा। कोंकण में या सुदूर गांवों में कभी जाना होता है तब रात में ये कमरे में आ जाते हैं। वरना बडे शहरों में अब घर के अंदर आने वाले भँवरे कहाँ मिलेंगे। लेकिन ऐसी बुरी स्थिति भी नही। हमारे बगीचे के कोने में अमलतास का पेड है। ग्रीष्म की तपती धूप में इसकी सारी पत्त्िायाँ झड चुकी होती हैं। पेड पर पीले फूलों के गुच्छम गुच्छ लटकते होते हैं और उनकी मंद मधुर सुगन्ध चहुँ ओर छा जाती है। ऐसे दिनों में भंवरों का एक झुण्ड वहां आ जाता है और दस-बारह दिन रहता है। सुबह सुबह वे भंवरे गुंजन करते हुए फूलों पर आ जाते हैं। ऊपर नीचे उडते हुए ऐसे लगते हैं मानों माला में काले मोती पिरोए हों। तब लगता है कि हमारा इतनी मेहनत से बगीचे में अमलतास लगाना सार्थक हो गया।
घर के अंदर चींटी, छिपकली हो तो मुझे आपत्ती नही होती। लेकिन एक छोटा हानिकारक कीडा कई घरों में रहता है- यह है कसर, जो खास कर ऊनी कपडे खा जाता है। यह अपने चारों ओर शकरपारे की शकल का एक चिपटा नाखून के चौथाई आकार का घर बना लेता है। यह दीवार से लटका होता है और देर तक कोई हलचल नही करता। रंग भी ऐसा कि दूर से लगेगा मानों सिमेंट का धब्बा पडा हो। घर की अलमारियों मे पडे कपडे इससे बचाना हो तो नाफ्ता की गोलियाँ डालना जरूरी है। रेशम कीडे की तरह यह भी अपने कोष में सो जाता है और बाद में इससे छोटे छोटे उडने वाले कीडे निकलते हैं जो प्रायः रसोईघर में अनाज के डिब्बों में घुसकर अंडे देते हैं और अनाज को खराब करते हैं।

मकड़ी, सुरवंट, कसर, ये सारे कीडे अपने मुँह से कोई चिपचिपा पदार्थ निकालकर उनसे अपना जाला या घर का कोष बनाते हैं। एक और कीडा मैं जानती हूँ, जो अपनी लार से गोंद बनाता है। यह पेडों की पतली पतली आधा इंची डण्डलें जमा करता है, मुँह से निकले गोंद से चिपकाकर उनकी एक पोटली बनाकर उसके अंदर रहता है। इसके शरीर के ऊपर हिस्से में नाखून जैसे अवयव होते हैं, जिन्हें पत्त्िायों पर गाड कर पत्तों के नीचले हिस्से पर लटकते हुए चलता है। ऐसी कुछ पोटलीयाँ भी मैंने इकट्ठी की हैं।
रेशम कीडे की तरह पलाश के पत्ते पर पलता है लाख का कीडा। एक जमाना था जब लाख का बड़ा कारोबार होता था- रंग बनाने के लिए। कृत्रिम रंगो के आने के बाद वह कारोबाद बंद हो गया। और अब तो लाख का कीडा भी नष्टप्राय कीडों की सूची में चला गया है।

बचपन में मैंने अपनी माँ से एक युक्ति सीखी थी। कोई भी कीड़ा दीखे, उसे मुट्ठी में उठाकर घर से बाहर फेंक दो। कुछ जहरीले या तेज डंख वाले कीड़े छोड़कर, माँ ने मुझे उनका अच्छा परिचय करवा दिया गया था, जैसे- एक जहरीला कीड़ा था बिच्छू की मौसी। आधे अंगुल लंबे इस कीड़े का मुँह बिच्छू के मुँह जैसा दीखता है और यह डंख भी मारता है अपनी पूँछ की तरफ से। या फिर गरमियों में नल या दूसरी ठंडी जगहों के पास निकलने वाला शतपद। मजा यह है कि केंचुए या सुस्त चाल से चलने वाले शतपद जहरीले होते हैं। उनकी पहचान भी माँ ने सिखा दी थी। टिड्डे, देवी का घोडा, बीटल्स, बारिश में निकलने वाले लाल-लाल बीर-बहुटी, इत्यादि कीड़े या तिलचट्टे भी वह मुट्ठी में पकड़ लेती थी।
बाद में मैं पटना के होस्टल में रहने लगी तो माँ से सीखे तरीके से कीड़े उठाकर दूसरी लड़कियों पर रौब जमाती। एक बार एक कीड़े ने ऐसी दुर्गंध वाला द्रव पदार्थ हाथ पर छोड़ा, जिसकी दुर्गंध निकालने में चार-पाँच घंटे लग गए। मेरी दोनों रूममेट और बाकी लड़कियाँ मेरे पास आतीं, सूँघती, 'छिह-छिह' करतीं और मुझ पर हँसती हुई निकल जातीं। मेरा सिर इतना कभी नहीं भिन्नाया। अब मैंने वह तरीका सीमित कर दिया- केवल किसी छोटे बच्चे को सिखाना हो तो करके बताती हूँ, वरना मैं मुट्ठी में कीड़े नहीं पकड़ती।

1 comment:

Arvind said...

फारच छान लिहलंय...खास कीटकांचा अभ्यास करणा-यांशिवाय अन्य कोणी त्यांच्या वाटेला जात नाही. फुलपाखरं, पतंग यासारख्या देखण्या कीटकांना पाहण्यासाठी लोक विविध जागा धुंडाळत असतात. परंतु, झुरळ, डास यासारख्या कीटकांचा तिटकारा करतात. आपल्या कीटक छंदमुळे विविध प्रकारच्या कीटकांची माहिती मिळणं शक्य झालं आहे. धन्यवाद...