'नो' वाला हुक्म
'किचन नो' का मतलब था कि टोटो, तुम्हें किचन में आना मना है। पूरे घर में मुक्त रूप से घूमने वाले टोटो के लिए यह आदेश बड़ा दुखदायी रहा होगा लेकिन उसने कभी उल्लंघन नहीं किया। पुणे के घर में किचन एक तरफ था लेकिन बाद में मुंबई के घर में किचन बीचोबीच था और किचन नो का मतलब था कि टोटो को दूर का चक्कर लगाकर
इधर से उधर जाना पड़ता। फिर भी उसने कभी किचन में प्रवेश नहीं किया। हफ़्ते में एक दिन उसके लिए मांस पकाया जाता। वैसे मैं पूरी तरह शाकाहारी हूँ और हमारे घर में आमलेट के सिवा अन्य मांसाहारी खाना नहीं के बराबर है। लेकिन टोटो के लिए मांस .जरूर पकाया जाता था। उसकी महक घर में फैलती तो टोटो का धीरज जवाब दे जाता। वह किचन के आसपास ही घूमता ओर कभी एकाघ पैर या गर्दन अंदर ले जाता। फिर हम लोग यों जताते मानों आपस में बात कर रहे हों - 'पता है एक आदमी रसोईघर में आने की कोशिश कर रहा है।' यह सुनकर बेचारा टोटो वहाँ से हटकर बालकनी में चला जाता।
उसे यह भी सिखाया था कि किसी दूसरे आदमी के हाथ से खाना तभी लेना है यदि प्रकाश या मैं या आदित्य इसकी इजा.जत दें। और 'खाना नो' कहा हो, तो सामने पड़ा खाना भी नहीं खाना है, भले ही वह मांस, मछली या चिकन ही क्यों न हो। कभी कभी दो-दो घंटे तक भी खाना न खाकर टोटो ने दिखा दिया था कि वह परीक्षा में अच्छी तरह पास था। लेकिन वह बुद्धिमान भी था - जल्दी ही जान गया था कि 'खाना नो' सुनने के बाद थाली के पास बैठे रहने की बजाय यदि वह हमारे आगे-पीछे घूमता रहे तो हम उसे बड़ी जल्दी खाने की इजा.जत दे देते हैं।
एक और 'नो' वाला हुक्म था जो उसे खलता था। मैं और प्रकाश दोनों नौकरी पर जाते। इसलिए हमारे आने पर उसकी इच्छा होती थी कि हमारे ऊपर उछल कूद करे, खेले, चाटे इत्यादि । हम उसे कहते - 'ऑफ़िस के कपड़े - नो'। फिर वह रुककर इंत.जार करता कि कब हम कपड़े बदलकर बाहर आएं और उसके साथ खेलें। कभी-कभी ऐसा भी होता कि ऑफ़िस से आओ, और ते.जी से कपड़े बदल कर किसी पार्टी के लिए तैयार हो जाओ। ऐसे समय दुबारा 'ऑफ़िस के कपड़े, नो' सुनकर वह बहुत मायूस हो जाता।
मेरी डयूटी काफ़ी टूरिंग वाली थी और अपने सब-डिवी.जन के गाँवों में 'नाईट हॉल्ट' करना आवश्यक होता था। टूरिंग के लिए एक जीप मिली हुई थी। आदित्य भी छोटा था। सो नाइट-हॉल्ट के लिए जाना हो तो जीप में मेरे साथ आदित्य, उसकी बुढ़िया आया, टोटो, टोटो के खाना खाने की थाली और सोने के लिए का टाट का बिछौना, ऑफ़िस का अर्दली इत्यादि पूरा दल-बल जाता था। टूर वाले गाँव में पहुँच कर मैं तो अपने काम में लग जाती पर टोटो इधर उधर घूम आता।
आज भी मेरे सब-डिवी.जन के रिटायर्ड पटवारी और रेस्ट हाउस के कर्मचारी आदित्य का हालचाल पूछते हैं और टोटो को याद कर लेते हैं।
Wednesday, August 8, 2007
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