सेमलसे
मुलाकात
कभी
कभी हमारे मनमें प्रश्न
उठता है कि क्या पेड हमारी
भाषाको समझते हैं ! मेरा
मानना है कि हाँ, वे
समझते हैं। ऐसी कई घटनाएँ मेरे
साथ घट चुकी हैं। उन्हींमेंसे
एक है सेमलकी मुलाकात।
सेमलकी
रूईसे सबका परिचय बचपनमें ही
हो जाता है। कौन बच्चा होगा
जिसने ''बुढ़ियाके
बाल'' न
उड़ाये हों? गर्मीके
दिनोंमें तेज धूपमें चमकते
हुए रूईके रेशोंके बॉल उडते
रहते हैं। उन्हींसे मैंने
सेमलको जानना आरंभ किया।
बादमें परिचय हुआ सेमलके
फूलोंसे। करीब चालीस
साल पहले मुझे अपनी डयूटीके
सिलसिलेमें अक्सर कारसे पुणेसे
मुंबई जाना पड़ता था। रास्तेंमें
खंडालाकी घाटियोंमें गरमीके
दिनोंमें सेमलके आठ-दस
पेड़ फूलोंसे लदे मिल जाते थे।
निष्पर्ण पेडके ऊँचे ऊँचे
ठूँठ और एकदम छोर पर गहरे लाल
रंगके बड़े बड़े फूलोंके गुच्छ
लटके होते थे। यही था मेरे
लिये सेमलका पहला दर्शन ।
पुणेमें
सेमलके पेड बहुलतासे नहीं
हैं। यदा-कदा
दिख भी जायें तो भी मैं पेड़को
पत्तोंसे पहचान नहीं सकती
थी। केवल गरमीके आते आते जब
पेड़के सारे पत्ते झड़ चुके होते
और लाल-लाल
फूल खिले होते, तभी
मैं उसे पहचान सकती थी। फूल
भी पेड पर टिकते हैं बस दस बारह
दिन। फूल झड़ जानेके बाद इसके
कोए अर्थात् फल निकलते हैं
जो डेढ़-दो
महीनेमें पककर अपने आप खुलते
हैं और उनमेंसे उड़नेवाली रूई
निकलती है, जिसे
हम 'बुढ़ियाके
बाल' कहकर
बचपनमें खूब खेलते थे। उस
रूईके गोलेके बीचमें सेमलके
छोटेसे बीज होते हैं, जो
गोलेके साथ उड़कर दूर-दूर
तक चले जाते हैं - इस
प्रकार सेमल अपनी प्रजातिको
अलग-अलग
स्थानोंमें फैला सकता है।
धीरे-धीरे
मैं सेमलके कोयेको पहचानने
लगी। हरे रंगका बडे शकरपारेके
आकार वाला यह फल होता है -
करीब पिंगपांगके
गेंद जितना। जब यह पककर सूख
जाता है तो उसका छिलका चटखकर
टूट जाता है और अंदरसे बुढ़ियाके
बाल निकल कर उडने लगते हैं जो
बीजको उडाकर दूर तक ले जाते
हैं। इस प्रकार फूल,
फल,
बीज
और बीजको उडा ले जानेवाले
रेशोंसे परिचय हो गया,
लेकिन
जबतक उनका सीजन हो तभीतक सेमलसे
पहचान बन पाती थी,
अन्यथा
नही।
कई
वर्ष बीते। बात इससे आगे नहीं
बढी। लेकिन कार्यालयीन यात्रामें
जब भी गरमियोंमें दिल्ली आई
तो पाया कि गरमियोंमें जगह-जगह
सेमलके बड़े-बडे
वृक्षोंपर फूल खिलते हैं।
इतनी बहुतायतसे सेमलके फूलमैं
पहली बार देख रही थी। मुझे बड़ी
खुशी हुआ करती।
फिर
दिल्लीमें ही नियुक्ति हुई।
यहाँ न्याय मार्गपर पहली बार
मैंने सेमलके पीले फूल देखे।
चलो, यह
एक और पहचान मिली। फिर एक बार
मैं राजाजी मार्गसे आ रही थी
तो देखा कि यहाँ गोल चक्करकी
परिधि पर सारे सेमलके पेड लगा
रखे हैं। उन दिनों सारे पेडों
पर केवल सूखे कोए लटक रहे थे
जिस कारण मैं पहचान
सकी। मेरे साथियोंमें से
किसीने पूछा - 'यह
अजीबसे पेड कौनसे हैं,
जिनमें केवल
निष्पर्ण ठूँठ हैं और कोए हैं
?'
'मैंने
बडे अभिमानसे कहा, मैं
जानती हूँ कि ये सेमल हैं
क्योंकि इसके कोए मैं पहचानती
हूँ। कुछ ही दिनोंमें यदि हम
यहाँसे गुजरें तो रूईके बॉल
उड़ते हुए मिल जायेंगे।
कह
तो दिया, पर
मेरे मनमें एक बात अटककर रह
गई। मेरे गणितके हिसाबसे यह
सीजन अभी कोएका नहीं,
बल्कि कलियोंका
था और उसके बाद फूलों को
आना था। यदि ये सेमलके कोये
थे तो पिछले महीनेभर से मैं
इसके लाल फूलोंको
क्यों नहीं देख पाई? कैसे
मेरी नजरें चूक गईं!? उस
दिन अपने आपपर लज्जा
आई कि अरे, जिस
पेडके फूल, कोए
और रूई मेरे मनको इतना आनंदित
करते हैं, उस
पेडकी पहचान तो मुझे है ही
नहीं। कभी मैंने प्रयास ही
नहीं किया उसे जाननेका। अब
कैसे मिले मुझे यह पेड !
कैसे पहचान
बढाऊँ?
मुझे
लगता है, सेमलने
मेरे मनके प्रश्नको सुन लिया
और उसे भी लगा कि मेरी मदद करनी
चाहिये। बहुत जल्दी ही मैंने
देखा कि न्याय मार्ग और बरदलै
मार्गपर सेमलके फूल बिछे पड़े
हैं। वहाँके सारे सेमल वृक्ष
फूलोंसे लद गये थे। तो
यही सही सीजन था और इसका गणित
मैंने सही किया था। वह राजाजी
मार्गपर जो कोए मैंने देखे,
वे शायद सीजनसे
पहले ही खिल गए थे। उनपर
आगे नजर रखनी होगी।
फिर
भी यह बात दिमागमें रह गई कि
जबतक मैं इसके
पत्तोंको नहीं पहचानती तबतक
तो इस पहचानको पूरा नहीं माना
जा सकता। दूसरी ओर सीजनसे पहले
फूलनेवाले राजाजी मार्गके
उस छोटे झुंडका
रहस्य भी जानना था।
एक
दिन मैं सुबह-सुबह
टहलनेके लिए निकली। अपने रोजके
रास्तोंसे अलग हटकर दूसरा एक
रास्ता पकड़ लिया। अचानक देखा
कि जमीन पर सेमलके दो सूखे फूल
पडे थे। ऊपर देखा तो एक हरे-भरे
पत्त्तियोंवाला
पेड़ खड़ा था।
इस
पेड़को तथा उसकी पत्त्तियोंको
मैं दूसरी तरहसे पहचानती थी।
टहनीके छोरपर इसके पत्ते
सात-सातके
झुण्डमें गोलाकार सजे रहते
हैं। इसलिये मैंने मन ही मन
इन्हें 'सप्तपर्णीका
नाम दे दिया था जो पता
नही ठीक था या गलत लेकिन पहचानके
लिये फिलहाल चल जायगा।
पत्ते बडे बडे होते हैं और पेड़
कभी ठिंगना तो कभी बहुत ऊँचा।
यह पेड भी दिल्लीमें बहुलतासे
देखे थे और पत्तोंसो
पहचान भी सकती थी।
भला
इस पेड़का सेमलके फूलोंसे क्या
लेना देना ? मैंने
पेड़को नीचेसे देखा, फिर
अगल-बगलसे
देखा । नहीं, कोई
तअल्लुक नहीं दीखता
था। हर ओरसे हरी-हरी,
बडी-बडी,
घनी पत्त्तियाँ
खिलखिलाकर मेरी परेशानी देख
रही थीं। हरेके अलावा कोई
दूसरा रंग कहीं नहीं था। इसका
और उन ठूँठसमान वृक्षोंका
नाता कैसे हो सकता है ?
मैं
हैरानसी उस सूखे फूलको हाथमें
उठाये अगल बगलके पेडोंसे उसका
मिलान करने लगी। किसी पेड पर
तो हों ऐसे फूल। लेकिन बाकी
सारे पेड छोटे-छोटे
झरबेरी या ऐसेवैसे
ही थे। उनमेंसे कोई भी सेमल
नहीं हो सकता था। खैर !
मैं टहलते हुए
दूर तक चली गई। वापस लौटते हुए
दूरसे ही मैंने उस पेड़पर नजर
रखी। और लो, पेडकी
ऊँची ऊँची फुगनियोंपर कुछ
लाल लाल दिख रहा था। मेरे
आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहा,
जब मैंने देखा
कि वे सेमलके ही फूल थे। बड़े-बड़े,
चिरपरिचित !
लेकिन संख्यामें
बहुत कम -- बस
सात-आठ।
इसका
अर्थ क्या हुआ, भाई?
मैं तो मानती
थी कि सेमलके पुराने
पत्ते झड़ जाते हैं तब
फूल खिलनेके दिन आते
हैं। और जबतक कोये
टूटकर न बिखर जायें,
तबतक
नये पत्ते नही आते। दूसरे
सेमल-पेडोंमें
तो अब तक फूल झड़कर कोए बननेका
सीजन आ चुका था - कई
कई कोए फूटकर उड़ चुके थे। लेकिन
इस पेडमें नये पत्ते
उगने भी शुरू हो गए थे और
इतनी दूरसे ऊपरकी तरफ कुछ
फूल और कुछ छोटे
छोटे कोए अभी भी दिख
रहे थे। अर्थात ये
कुछ छिटपुट आलसी फूल ही बचे
थे जो सबसे अंतमें उगे होंगे,
इसी से पत्त्तियोंके
सीजनमें भी वे पेडपर टिके हुए
थे।
कहीं
ऐसा तो नहीं कि सेमलका पेड
मुझे समझाना चाहता था कि देखो,
जिसे तुम
पत्तोंके नाते अलगसे पहचानती
हो और फूलोंके नाते अलगसे,
आज जान लो कि
उनका क्या रिश्ता है। इसलिए
आगे जब तुम यह पत्ते देखना तो
याद कर लेना कि इसमें कौनसे
फूल उगते हैं और जब फूल देख
लेना तो याद कर लेना कि इसमें
कैसे पत्ते लगते हैं !
हो गई ना अब
पूरे पेड की पहचान? हाँ
यह भी जान लो कि ये सप्तपर्णी
नही है।
अब
बचे वे राजाजी मार्गके
रहस्यमयी पेड जिन पर समयसे
पहले ही कोए आ गये थे और
जिनपर कभी लाल फूल हों तो मेरी
नजरसे चूक गये थे। ऋतु
बदली, सर्दियाँ
आईं और देखा कि वे
पेड गहरे गुलाबी रंगके फूलोंसे
लदे थे। अब मेरी
अस्वस्थता चरमपर पहुँची।
एक दिन वनस्पति
विज्ञानके एक प्रोफसर मिल
गये और रहस्य समझानेको
तैयार हो गये। हमलोग राजाजी
मार्ग गए। प्रोफसर ने समझाया
- ये अफ्रीकन
सेमल हैं, हमारे
सेमलसे बहुत पहले इनका सीजन
आता है। इन्हें भी पहचान लीजिए।
इनके भी कोये आयेंगे,
बुढियाके
बाल उडेंगे लेकिन हमारे सेमलकी
तरह गर्मियोंमें नही,
बल्कि
सर्दियोंमें।
वाह
भाई सेमल, हो
गई पूरी पहचान। तुम्हें बहुत,
बहुत धन्यवाद।
जाते
जाते ये भी कह दूँ कि दिल्लीमें
ही और एक प्रजातिके उँचे,
घनेरे,
खुशबूवाले
फूलोंके पेडसे परिचय हुआ जो
असली सप्तपर्णी था।
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