Wednesday, August 8, 2007

१३--मयूरपंखी यादगार

१३--मयूरपंखी यादगार

यह सन्‌ १९८३ की बात है। तब मैं महाराष्ट्र के सांगली जिले में जिला परिषद् के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पद पर नियुक्त थी। रहने के लिए जिला परिषद् का एक बड़ा बंगला, आधे एकड़ में फैला हुआ बगीचा और उसमें कई सुन्दर घने पेड़ थे।
कभी परिस्थितिवश मैंने वहाँ एक बड़ा सा पिंजरा बनवाया था और एक बाल-सिंहनी को पाला था। बाद में रानी- अर्थात शेरनी वापस चिड़ियाघर में चली गई और पिंजरा खाली पड़ा रह गया। आगे नियति को यह मंजूर था कि उसमें एक मोर की बारी आये।
क्या तुम्हे मालूम है कि मोर जो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है और दुनियाँ का सबसे सुन्दर पक्षी माना जा सकता है, वह अब नष्टप्राय प्रजातियों में गिना जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि हम सब ने मिलकर उसे बचाने के लिये कोई उचित कदम जल्दी नहीं उठाये तो फिर हमें मोर कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगे। आजकल लोग खेतों में बीज बोने के समय उसमें कीड़े मारने वाली दवाईयाँ डाल देते हैं। मोर उन्हें खाकर बड़ी संख्या में मर रहे हैं। ऐसी खबरों को तुम ध्यान से देखना और उनके विषय में सोचना। खैर!
महाराष्ट्र के कई जिलों में मोर पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं। लेकिन सांगली जिले में आटापाडी गाँव के आस-पास थोड़े घने जंगल हैं जहाँ मोरों के अच्छे खासे झुण्ड रहते हैं। वे गाँव के आस-पास खेतों में घूमते आते हैं।
एक दिन एक मोर मन्दिर में घुस आया। कुछ शैतान बच्चों ने मन्दिर का दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया। मोर बहुत उछला-कूदा, छूटने के लिये सर मारा। जब तक गाँव के बड़े-बूढ़े आये, मोर काफी घायल हो चुका था। लोग घबराये। मुखिया ने सीधे मुझे फोन किया कि 'एक घायल मोर है, इसका इलाज होना चाहिये। क्या आप पिंजरे में रखेंगी? हम तुरन्त उसे जीप में डालकर ले आते हैं '।
मोर को पिंजरे में रखना हो तो वन विभाग की अनुमति लेनी पड़ती है। घायल मोर देखकर उन्होंने अनुमति दे दी। हमने रानी के बड़े पिंजरे को सुधार कर उसे और बड़ा बनवाया। उसमें पेड़ों के दो-चार ठूँठ, कुछ गमले रखवाये। मोर का नाम रखा- निरंजन। उसके पैर व पेट पर घाव थे, वहाँ पट्टी बंधवाई। दवा कराई।
निरंजन की हम सभी से अच्छी दोस्ती हो गई थी। मेरा बड़ा लड़का आदित्य ही उसकी देखभाल करता था। उसे खाने के लिये मूँगफली, फुलाये चने, गेहूँ, तिल, करडई, बाजरा इत्यादि एक साथ मिलाकर देते थे। बगीचे के पेड़ों के नीचे से मिट्टी खोदकर आदित्य उसमें से केंचूएँ उठा लाता था और उसे खिलाता था। उसने हमारी बातें काफी सीख ली थीं और अपना नाम निरंजन भी स्वीकार कर लिया था। बारिश के पहले मोर के पंख अपने आप गिरने लगते हैं और बाद में नये पंख फिर से निकलते हैं। यह ऐसा लग रहा था, जैसे पीपल के पेड़ में पत्ते झड़कर फिर नये निकले हों। वे सारे पुराने पंख हमने सम्भाल कर रखे हुए हैं।
मोर के जो लम्बे-लम्बे पंख हम देखते हैं, वे उड़ने के काम नहीं आते। लेकिन होते हैं बड़े खूबसूरत। चमचमाते हरे-नीले रंग के बीचों-बीच जर्द सुनहरे रंग की आँख बनी होती है। उस पर पाँच-छः बार कोई कागज रगड़ी तो उसमें थोड़ी सी बिजली पैदा होती है और तुम उसे अपने हाथ पर या कपड़े पर चिपका सकते हो। कुछ पंख ऊपर से यों कटे होते हैं कि पूरी आँख के बजाय चन्द्रमा की कोर का ही आकार होता है। मोर की गर्दन के पास बहुत छोटे-छोटे हरे पंख होते हैं जिन्हें पानी से भिगोने पर नीले और सूखने पर फिर हरे हो जाते हैं।
निरंजन ठीक भी हो गया, उससे हमारी दोस्ती भी हो गई। लेकिन उसे पिंजरे में देखना अच्छा नहीं लग रहा था। वन-विभाग से पूछा कि क्या इसे बगीचे में खुला छोड़ दें। तो उन्होंने कहा कि मोर के लिये कम से कम दो-तीन एकड़ का बगीचा होना चाहिये। वह वहीं घूम-फिर कर रह लेगा। पर आपका बगीचा छोटा है। वह उड़कर थोड़ी दूर जाएगा तो शहर के शोरगुल में बौखला जाएगा। सम्भव है, फिर कोई उसके पीछे पड़ जाये, वह डर जाए या घायल हो जाए।
फिर मैंने सोचा कि इसे वापस आटापाडी में छोड़ना चाहिये, जहाँ उसके संगी साथी हैं। हमने अम्बेसेडर कार में उसे बैठाया तो वह भी उसके पंखों के लिये छोटी पड़ रही थी। खैर, सांगली से आटपाडी, दो घंटे का रास्ता उसने मेरी गोद में बैठकर तय किया। तब मुझे पता चला कि मोर भी कितना भारी होता है।
यह माना जाता है कि मोर बहुत बुद्धिमान होता है। इसीलिये देवी सरस्वती ने उसे अपने वाहन के रूप में रखा है। वैसे सरस्वती का दूसरा वाहन हंस भी है। लेकिन मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मोर बहुत शक्तिशाली भी होता है। तभी तो देवताओं के सेनापति कार्तिकेय ने उसे अपना वाहन बनाया है।
पुराण कथानुसार कश्यप ऋषि की पत्नी थी विनिता जिसके तीन शक्तिशाली पुत्र थे। बड़ा था अरूण, लेकिन शक्तिशाली होते हुए भी वह पैरों से अपाहिज था। वह सूर्य भगवान्‌ के रथ का सारथी बना। इसीलिये सुबह की आकाश की लाली को 'अरूणिमा' कहते हैं। दूसरा बेटा था मयूर अर्थात्‌ मोर जिसे देव-दानव युद्ध में सेनापति कार्तिकेय का वाहन बनाया गया। तीसरा पुत्र था गरूड़, जो स्वर्ग से अमृत ही उठा लाया और बाद में विष्णु का वाहन बना।
आटपाडी पहुँचे तो शाम हो रही थी। हम उन्हीं खेतों की ओर गये जहाँ मोरों के झुंड थे। वे बाजरे के खेत थे जिसमें फसल कट चुकी थी। निरंजन को कार से निकालने पर वह पहले तो अचकचाया। फिर तेजी से दौड़ते हुए अपने झुंड में चला गया। मैं जानना चाहती थी कि क्या वह उड़ पायेगा? या तीन चार महीने की पिंजरे की जिन्दगी ने उसे कमजोर कर दिया है।
देखा, मोरों ने एक-एक कर उड़ना शुरू कर दिया था। वह उड़ान देखने लायक थी। मोर ऊँचे पेड़ से जमीन में उतरता है तो वह हवा में मानो तैरता हुआ आता है। या फिर एक पेड़ से पास के ही दूसरे पेड़ पर जाना हो तो छोटी सी छलाँग में जाता है। लेकिन यह उड़ान कुछ अलग ही थी। मोर जमीन से यों उड़ते थे मानो बारूद का गोला 'सूँ' करता हुआ जा रहा हो। दो-तीन किलोमीटर तक मेरी आँखें उनका पीछा करती रहीं। लेकिन उन्हें एक बार भी कभी अपने पंख हिलाने पड़े, न गति में कोई कमी आई।
तीन-चार मिनट के अन्तराल से एक-एक कर मोर उड़ते गये, हर मोर यों जा रहा था मानो आग में लाल तपाया हुआ कोई लोहे का गोला उड़ा जा रहा हो। हम लोग आकाश मार्ग से उनका जाना देखने में मशगूल थे। जब आखरी मोर भी उड़ गया और सामने का मैदान खाली हो गया तो मुझे वापस ध्यान आया कि निरंजन भी उड़ गया है। अबाधित गति से, बिना लड़खड़ाये, उसी शक्ति-भरी उड़ान के साथ, जैसे वह पहले कभी उड़ चुका होगा। पिंजरे के जीवन का कोई दुष्परिणाम उस पर नहीं हुआ था। उसने शक्ति नहीं खोई थी।
मुझे खुशी हुई। एक छोटा सा आँसू फिर भी आँखों में आ ही गया। वह कैसे चला गया बिना 'अलविदा' कहे! लेकिन फिर सोचा, वह चाहे भी तो कैसे कह सकता है! उस पल उसकी अगली जिन्दगी के लिये यह जरूरी था कि वह अपने झुण्ड के साथ ही निकल जाये।
शायद मैं फिर कभी आटापाडी जाऊँ, उन बाजरे के खेतों में, जहाँ मोर उतरते हैं। शायद उनमें निरंजन भी हो ! शायद उसे भी मैं याद रहूँ। वह कोई तरीका निकालकर पहचान करा दे। शायद...........

1 comment:

Banu Raghavan said...

Wow! Leenaji! Hats of to you!I too love animals,birds,plants,trees,planets,scenery:)
I loved reading this :)

Banu Raghavan(Face book)