मेरी टूर में कभी कभी प्रकाश भी शामिल हो तो टोटों बड़ा ख़ुश होता। फिर वे दोनों पहाड़ों और कि़लों पर घूमने चले जाते। मेरी सब डिवी.जन में चारों तरफ़ शिवाजी-कालीन गढ़ और कि़ले थे जैसे सिंहगड़, राजगड़, लोहगड़ इत्यादि। टोटो इन सभी गड़ों पर चक्कर लगा चुका था।
नाइट हॉल्ट ना हो, तब मैं गाँवों के इंस्पेक्शन पूरे करके घर लौट आती। इसका कोई समय निर्धारित नहीं होता। कभी शाम के छ बजे तो कभी रात के दो-तीन बजे भी मैं घर आती। उन दिनों घर में संदेशा भेजने की कोई व्यवस्था नहीं थी कि मैं कितनी देर से लौटूँगी। लेकिन मेरे लौटने के क़रीब आधा घंटा पहले टोटो दरवा.जे के पास चला आता था और तब तक वहीं रुकता जब तक मैं न आ जाँऊ। वैसे कुत्तों के कान और सूँघने की क्षमता अद्भुत होती है, फिर भी इतनी दूर से मेरे आने का पता लगना केवल इन्हीं दो बातों से नहीं हो सकता।
इससे भी आश्चर्य की दो घटनाएँ हमें याद आती हैं। एक बार प्रकाश के छोटे भाई को इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखि़ला दिलवाने प्रकाश को सांगली जाना पड़ा, जो पुणे से क़रीब २०० किलोमीटर दूर है। इस काम में चार-पाँच दिन लगने थे। लेकिन दूसरी ही रात की बात है - टोटो मेरे पलंग के नीचे से उठकर दरवा.जे के पास जा बैठा। मैं भी बड़ी सावधानी से दरवा.जे तक गई। तो जनाब ख़ुश होकर पूँछ हिला रहे थे और हौले-हौले कूं-कूं भी कर रहे थे। मैं थोड़ी देर रुकी, फिर डाँटकर उसे सो जाने को कहा और वापस आ गई। लेकिन टोटो वहीं बैठा रहा। बीस-पचास मिनट बाद 'बेल' बजी और सामने प्रकाश हा.जिर। पता चला कि काम जल्दी हो गया था। स्टेशन से घर आने में क़रीब उतना ही समय लग जाता है।
इसी दौरान मुझे ट्रेनिंग के लिए मसूरी जाना पड़ा। आदित्य को मुंबई में दादी के पास रखकर मैं मसूरी चली गई। अब घर में प्रकाश और टोटो अकेले थे और प्रकाश के ऑफ़िस जाने पर टोटो निपट अकेला रह जाता। घर में अख़बार, कई तरह के बिल, चिट्ठियाँ आदि आते थे जिन्हें लोग दरवा.जे के अंदर से नीचे सरका देते थे। एक दिन ऑफ़िस से लौटकर प्रकाश ने देखा कि टोटो ने किसी काग़.ज को चबा चबाकर छोटा सा बॉल बना दिया था और उसी पर अपना मुँह रखकर बैठा था। बड़ी मुश्किल से प्रकाश ने उसे छीना, फिर बाल्टी भर पानी में उसे धोया तो काग़.ज की चिंदियाँ पानी पर तैरने लगीं। उन्हें सीधा किया, सुखाया और बड़ी कोशिश की समझने की कि ये कौन सा कागज हो सकता है? कुछेक ही अक्षर पढ़ने को मिले जिनसे पता चला कि वह मेरी चिट्ठी थी।
पंद्रह-बीस दिनों में मेरी दूसरी दो चिट्ठियों की यही गत बनी तो हारकर प्रकाश ने लैटर बॉक्स बनाया। अन्य किसी भी काग़.ज की ओर ध्यान न देने वाला टोटो केवल मेरी चिट्ठियों की महक से पहचान कर उन्हें चबाया करता था।
एक बार मेरी सासूजी पूना आईं - आठ दिन रहीं। टोटो एकदम उनका भक्त बन गया। जाने के दिन सुबह वे काफ़ी देर टोटो के पास बैठकर बातें करती रहीं कि अब मैं मुंबई वापस जाऊँगी। तुम ठीक से रहना। आदित्य का, घर का ख़्याल रखना इत्यादि। इस पर टोटो बेचारा क्या कहता, किस भाषा में कहता जो हम समझ पाते ! जाने से एक घंटा पहले उन्होंने अपना सामान पैक किया और बाहर के कमरे में लाकर रख दिया। टोटो उठा, उसे सोने के लिए जो टाट का बिस्तर बना हुआ था -अर्थात उसका सामान - वही घसीट कर ले आया और उनके सामान से भिड़ा कर रख दिया। उसे बहुत समझाना पड़ा कि बेटे, तुझे मुंबई नहीं लें जा सकते।
Wednesday, August 8, 2007
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