०८--चिड़ियों का वीडियो
हमारे आस-पास हरियाली हो, पेड़-पौधे हों, पंछी हो और हमारी उनसे थोड़ी-सी दोस्ती हो तो जीवन में एक अनोखा आनंद आ जाता है। खासकर काम की थकान हो, मन दुःखी हो, तो दुबारा उल्लास पाने के लिए एक अच्छा उपाय है पंछियों को देखना।
लेकिन कोई आवश्यक नहीं कि वैसे समय में वे आपके लिए तैयार बैठे हों। यदि पक्षी-निरीक्षण करना हो, तो उनके समय के अनुरूप समय निकालना पड़ता है, भले ही अपने जरूरी काम छोउ देने पड़े- क्योंकि अपने काम तो फिर भी बाद में किए जा सकते हैं, पक्षियों को दखने-पढ़ने का मौका बार-बार नहीं आता है। कम-से-कम मेरा तो यही नियम है कि पक्षी दिखे तो पहले उनको देखो, अपने काम तो बाद में भी हो जाएँगे।
पंछियों में हमारी सबसे परिचित हैं चिड़ियाँ, जिसे गौरैया भी कहते हैं। यह प्रायः दस-बीस के झुंड में होती हैं और जब अंडे देने का समय होता है तो दो-दो की जोड़ियों में। इनका एक खेल है मिट्टी में नहाना। जमीन पर अपने पेट से रगड़-रगड़कर ये गड्ढे बना लेती हैं, फिर उसी में लोट-पोट होकर मिट्टी-स्नान करती हैं। किसान मानते हैं कि जब चिड़ियाँ मिट्टी स्नान करती हैं तो समझो कि पानी बरसने वाला है। लेकिन मैंने उन्हें कई बार दूसरे मौसम में भी मिट्टी स्नान करते हुए देखा है। जब वे अपने- अपने गड्ढों में स्नान करती हैं, और दूसरी चिड़िया उसी गड्ढे में आना चाहती है तो झगड़ा हो जाता है। फिर वे अपनी चोंच से और पंखों को फुर्र-फुर्र उड़ाकर एक-दूसरे को धमकाती और डराती हैं।
एक बार मैं सरकार के प्राकृतिक चिकित्सा विभाग में काम कर रही थी और हमें इस विषय पर फिल्म बनानी थी। प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी का काफी उपयोग किया जाता है। चूँकि इसके विषय में फिल्म बननी थी तो हमने चिड़ियों के मिट्टी-स्नान को भी फिल्माने का फैसला किया। मेरे ही घर के विशाल आँगन में एक खास जगह पर चिड़ियों ने अपने स्नान के लिए गड्ढे बना रखे थे। सुबह छह से साढ़े छह उनके नहाने का समय होता था। हमारे सौभाग्य से हिंदी फिल्मों के जाने-माने कैमरामैन देबू देवधर शूटिंग करने वाले थे। मैंने उन्हें आश्र्वस्त किया था कि चिड़ियाँ रोज आकर मिट्टी स्नान करती हैं- आपकी शूटिंग दस मिनट में पूरी हो जाएगी।
शूटिंग का दिन तय हुआ। उन्होंने सुबह पाँच बजे आकर आँगन में अपने दो कैमरे सेट कर लिए। सारे लोग झाड़ियों में छिप गए। समय बीतता गया। आठ, नौ बज गए, एक भी चिड़िया नहीं आयी।
शूटिंग वाले लौटने लगे। उन्हें हमने मनाया कि कल एक बार और प्रयास करते हैं।
दूसरे दिन आँगन में फिर से कैमरे लगे। फिर इंतजार हुआ। फिर समय बीतता गया। फिर भी चिड़ियाँ नहीं आयीं।
शूटिंग वाले लौटने लगे। उन्हें हमने मनाया कि कल एक बार और प्रयास करते हैं।
दूसरे दिन आँगन में फिर से कैमरे लगे। फिर इंतजार हुआ। फिर समय बीतता गया। फिर भी चिड़ियाँ नही आयीं।
अब शूटिंग टीम के लोग जिद पर आ गए कि शूटिंग करके ही मानेंगे। तीसरे दिन वे फिर आए। पर अबकी कैमरों को आँगन की बजाय घर की बालकनी में लगाया गया। फिर इंतजार हुआ। छह बजते-बजते एक-एक कर चिड़ियाँ आने लगीं। अपने -अपने गुसलखानों में नहाने लगीं। एक-दूसरे को भगाने लगीं- एक चिड़ा तो मिट्टी में इतनी देर लोट-पोट हुआ मानो हमारे शूटिंग के लिए ही पोज दे रहा हो। इस तरह से हमारा समय लगाना सार्थक हुआ। लेकिन यह आज तक समझ में नहीं आया कि पहले दो दिन उन्हें हमारे होने का पता कैसे चला !
हालाँकि अपनी फायनल फिल्म में हमने चिडियों के दृश्य केवल दस-पंद्रह सेकेंड के ही रखे, फिर भी उस दिन की पूरी शूटिंग की छह मिनट की फिल्म आज भी मेरे पास सुरक्षित है। इस घटना ने मुझे ऐसा उकसाया कि अब मैंने खुद एक वीडियो कैमारा खरीदकर उसमें पंछियों की विडियो-शूटिंग करनी शुरू कर दी है।
Wednesday, August 8, 2007
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